संदेश

जून, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हत्या कहूँ या मृत्यु कहूँ

काव्य संख्या-215 ============= हत्या कहूँ या मृत्यु कहूँ ============= बता इसे मैं क्या कहूँ हत्या कहूँ या मृत्यु कहूँ तुम्हारे लिए तो बस ये आकड़े हैं उसके लिए क्या जिसने अपने बच्चे खोएं हैं सत्ता मौन है विपक्ष मौन है सारी-की-सारी व्यवस्था मौन है मैं पूछता हूँ तुमसे तू ही बता इसके लिए उत्तरदायी कौन है कौन उठाएगा उनके लिए आवाज़ कौन सुनेगा उसकी आवाज़ कहां गयीं तुम्हारी योजनाएं जिसके बलबूते तुम सत्ता में आए कौन सुनेगा उन माँ... ओ की चित्कार जिनके आंचल पड़ गये सुने सुने पड़ गये जिनके आंगन जहां बसती थी हमेशा खुशियाँ आज छा गया उनके घर मातम अब कौन बनेगा उनके बुढ़ापे की लाठी चार लाख रूपए नहीं चाहिए चाहिए उन्हें उनके बुढ़ापे की लाठी तुम्हारी एक लापरवाही से कितने ही आंगन हो गई सुनी सुना था माँ-बाप की अर्थी को देते हैं बच्चे कांधा आज देख रहा हूँ माँ-बाप दे रहे हैं बच्चे की अर्थी को कांधा तू बता किस बात की सजा मिली उन्हें कहां गया तुम्हारा शासन-सुशासन-पद्मनासन कहां गया तुम्हारा "आयुष्मान भारत" अब तू ही बता इसे मैं क्या कहूँ हत्या कहूँ या मृत्यु कहू

यथार्थ से हुआ सामना

काव्य संख्या-214 ============= यथार्थ से हुआ सामना ============= सपनों में जी रहा था मैं धरती को छोड़ आसमान में उड़ रहा था मैं जबकि खुद के पंख नहीं थे मेरे फिर भी उसे अपना समझ रहा था मैं जिंदगी को बहुत आसान समझ रहा था मैं सच्चाई से वाकिफ था फिर भी इसे झुठला रहा था मैं जब सच में यथार्थ से हुआ सामना एकदम डर-सा गया था मैं सामने बस अंधेरा-ही-अंधेरा था रास्ते नहीं दिख रहे थे मुझे लड़खड़ा रहे थे कदम मेरे बेजान-सा हो गया था मैं बैसाखी की जरूरत थी मुझे लेकिन बैसाखियों के सहारे कब तक चलता मैं जब सच में यथार्थ से हुआ सामना सहम-सा गया था मैं अंतर्विरोध में जी रहा था मैं कोई भी निर्णय लेने से डर रहा था मैं खुलकर बोलने से डर रहा था मैं क्योंकि समय नहीं था साथ मेरे कुछ थे अब भी साथ मेरे बढ़ा रहे थे हौसले मेरे शायद कुछ विश्वास बचा था मुझपर जिसके सहारे जी रहा था मैं जब सच में यथार्थ से हुआ सामना घबराया गया था मैं। प्रियदर्शन कुमार