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नव-वर्ष

नव वर्ष ===== नव वर्ष नयी उम्मीद नये उमंग नयी सोच नये विचार नया आगाज नये लक्ष्य नया स्वप्न नये इरादे नयी कसमें नये वादे के साथ नया करने नया पाने के लिए बढ़े हम बढ़े सब इसी के साथ नूतन वर्ष का स्वागत करें हम। प्रियदर्शन कुमार

आशा

आशा ============== धूंधला-सा हो गया हूँ मैं धूंधली-सी हो गई है मेरी छाया ढ़ल गया है दिन छा गया है अंधेरा इंतजार है उसे भी इंतजार है मुझे भी ये दिन भी गुजर जाएगा हमारे भी आएंगे अच्छे दिन समय-समय की बात है दिन होता नहीं है हमेशा एक समान हारना नहीं सीखा है हमने लड़ रहा हूँ मैं खुद से लड़ रहा हूँ मैं समय से लड़ने के सिवाय कुछ भी नहीं है मेरे बस में मानकर चलता हूँ मैं मेहनते बेकार नहीं जाती यह रंग तो लाएगी थोड़ी देर से ही सही आशा है मुझे निराशा नहीं मुझे। प्रियदर्शन कुमार

अतीत बनाम वर्तमान

अतीत बनाम वर्तमान ====================================         अतीत और वर्तमान के बीच अपनी-अपनी प्रमुखता को लेकर बहस चल रही थी। वर्तमान ने अतीत से कहा कि तुम मेरे विकास में बाधक हो। मैं जब भी तुम्हें भूलाने की कोशिश करता हूँ और अपने स्वतंत्र अस्तित्व की बात करता हूँ तथा भविष्य को संवारने की कोशिश करता हूँ तो तुम मेरे कदम को पीछे खींचते हो।मैं तुमसे कोई रिश्ता नहीं चाहता। अतीत ने नाराजगी जाहिर करते हुए वर्तमान से कहा कि तुम मेरे उपर गलत आरोप लगा रहे हो। हां, यह सच है कि मैं हमेशा तुम्हारे पीछे लगा रहता हूँ। तुम मुझे लाख भूलाने की कोशिश करते हो लेकिन मैं ऐसा नहीं होने देता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तुमसे जलती हूँ या तुम्हारे प्रगति के मार्ग में बाधक हूँ। मैं इसलिए तुम्हारा साथ नहीं छोड़ता हूँ कि कहीं तुम्हारे अंदर घमंड न आ जाए जो कि किसी भी मनुष्य के विनाश का कारण होता है। तुम्हारे अंदर जो परिवार और समाज के प्रति आदर का भाव था, संवेदना और सहानुभूति का भाव था, सुख-दुख में सहभागिता थी, वो खत्म न हो जाए या तुम भूल न जाओ। अक्सर लोग ऊंचाइयों पर जाने के बाद परिवार और समाज से कट जाते

किसान

काव्य संख्या-207 =========== किसान =========== मैं किसान हूँ मेरा काम है खेती का रहने के नाम पर मेरे पास एक घर है जो फूस का बना है बरसात के दिनों में टप-टप पानी टपकता है गर्मी के मौसम में सूर्य की किरणें झांकती हैं एक टूटी हुई खाट कुछ बर्तन पहनने के नाम पर फटा-चिथरा कपड़ा हैं जो मेरे तन को ढकने में असमर्थ है सर पर पगड़ी है जो स्वाभिमान का प्रतीक है एक लाठी है जो सहारा देने का काम करता है स्वप्न भी छोटे आकांक्षाएं भी छोटी-सी मेरा फसल अच्छा हो अच्छी उपज हो भरी दोपहरी हो बरसात हो या फिर हो शीतलहर हर स्थिति में मैं अनाज पैदा करता हूँ ताकि पेट की आग को शांत कर सकूं अपनी नहीं, दूसरों की अपने लिए तो कुछ भी नहीं बचता अपने लिए बचता है तो केवल ऋणजाल महाजनों का कभी न चुकने वाला मजदूरी कर पेट पालता हूँ अपनी आयु से अधिक का दिखता हूँ पैरों में छाले पड़े हैं मैं समाज के हाथों का खिलौना हूँ जिसके जज्बातों से सब खेलते हैं लोकतंत्र के नाम पर मुझे बस वोट देने का अधिकार है ताकि लोकतांत्रिक देश में रहने का अहसास हो सके सवाल पूछने का अधिकार नहीं है सवाल पूछने प

बेटा-बेटी

काव्य संख्या-106 ===================== बेटा-बेटी ===================== समय की परिवर्तनशीलता को देखो कभी पराई समझी जाती थी बेटी घर की मेहमान होती थी बेटी घर से बिदा होती थी बेटी बेटी में जन्म लेना अपशकुन समझी जाती थी बेटी माँ-बाप के आँखों का तारा था बेटा कुल का दीपक था बेटा सुख-दुख का भागी था बेटा वंश को आगे बढ़ाने वाला था बेटा माँ-बाप के मोक्ष का माध्यम था बेटा दिन गुजरे युग बदला रिश्तों की अहमियत बदली परिवार का दर्शन बदला अब मेहमान होता है बेटा घर का पराया होता है बेटा शादी के बाद घर से बिदा होता है बेटा माँ-बाप के आँखों का आँसू होता है बेटा दुख का कारण होता है बेटा अपनी होती है बेटी दुख-सुख की भागी होती है बेटा माँ-बाप के बुढ़ापे की लाठी होती है बेटी।                         प्रियदर्शन कुमार

टूटते पत्ते

टूटते पत्ते ====================== वृक्ष से जब पत्ते टूटकर अलग होते हैं पत्ते का अस्तित्व खत्म हो जाता है। जबतक पत्ते वृक्ष से जुड़े रहते हैं, वृक्ष बूढ़ा होकर भी, अपनी क्षमता तक, पत्तों का पालन-पोषण करता है। मगरूर पत्ता, अपने यौवन से चूर होकर पेड़ से अलग हो जाता है। वह यह नहीं सोच पाता है कि उस पेड़ का क्या होगा, जिसने उसका पालन-पोषण किया है उसके दर्द का उसे तनिक भी अहसास नहीं पत्ते को अलग होते देख वृक्ष मुरझाने लगता है। पत्ते को लगता है, उसके लिए अब वृक्ष की कोई अहमियत नहीं है। वह समझने लगता है कि वृक्ष की सुंदरता उसके कारण ही है लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि उसके चहरे पर मुस्कान का कारण वह वृक्ष है वह जो भी है, जैसा भी है, उस वृक्ष के कारण है। वह जब भी पहचाना जाएगा अपने वृक्ष से ही। लेकिन मगरूर पत्ता अपने अस्तित्व के लिए भटकता रहता है, दर-बदर की ठोकरें खाते रहता है और अंत में टूटकर बिखर जाता है क्योंकि अपने सृजक की आत्मा को पीडि़त कर सृजित कैसे खुश रह सकता है।                   प्रियदर्शन कुमार

जीवन

जिंदगी =========== जीवन में न जाने कितने ही दौर आते हैं कभी सुख कभी दुख कभी हँसना कभी रोना कभी हैरान कभी परेशान कभी अच्छा कभी खराब कभी भला कभी बुरा कभी मिलना कभी बिछड़ना कभी अपनो का साथ कभी परायों का कभी प्यार कभी वेदना कभी सम्मान कभी अपमान कभी आँसू कभी मुस्कान कभी सफलता कभी असफलता कभी आशा कभी निराशा कभी यश कभी अपयश कभी हार कभी जीत कभी उपर कभी नीचे बस, यूं ही कट जाती है इंसान की सारी जिंदगी धरा का धरा रह जाता है सबकुछ यहीं पर ठहर जाती है जिंदगी सांसों की डोर थमने से।         प्रियदर्शन कुमार

अहसास

अहसास =============== मैं हँसता हूँ जब सबके बीच होता हूँ। मैं रोता हूँ जब अकेला होता हूँ। सबका साथ है फिर भी लगता नहीं कोई पास है। भीड़ में हूँ फिर भी अकेला हूँ। चेहरे पर हँसी है फिर भी पीड़ा में हूँ । मैं वो झरना हूँ जो चट्टानों से चोट खाकर भी हमेशा मुस्कुराता रहता हूँ। मैं उस सागर की तरह हूँ जिसकी लहरें चट्टानों से बार-बार चोट खाती हैं लेकिन हार नहीं मानती। खुशियाँ नहीं सबके नसीब में मैं दुख के सहारे ही जीता हूँ। मैं हूँ बस, यह एक अहसास है अहसास के अलावा और कुछ नहीं। प्रियदर्शन कुमार

बहू

माँ लगाती झाडू-पोछा बहुएं बैठती हैं सेज पर कितना विहंगम दृश्य लगता है कोई जाकर पुछे उन बेशर्मों से लज्जा क्या नहीं आती है उन्हें खुद को पढ़ी-लिखी की दावा करते गौरव से हमेशा चूर रहते खुद को ऊँचे खानदान का कहते संस्कार-उंसकार की बातें करते माँ को गाली-गलौज करते खुद उनके टुकड़ों पर पलते उन्हें ही आँख दिखाने से नहीं चूकते हैं माँ की बातें लगती है उन्हें जली-भुनी उनके द्वारा अर्जित सम्पत्ति लगती है उन्हें अच्छी माँ की सेवा करने से जी चुराते हैं वो माँ के मरने के बाद सम्पत्ति के बँटवारे के लिए माइके से पिता-भाई-सगे-संबंधियो को बुलाते हैं वो सास-बहू के झगड़ों में पीसते रहते बेटे बेचारे दो बात उधर से सुनते, दो बात इधर से सुनते पेंडुलम की तरह दोनों के बीच डोलते रहते आस-पड़ोस वाले टकटकी लगाएँ बैठे रहते कहीं कुछ मसाला मिल जाए उन्हें आगे क्या हुआ, कौन किसको क्या बोला इसी ताक-झांक में हमेशा रहते घर-घर की यही कहानी है कितनी सच्ची कितनी झूठी यह मेरी कहानी है सब अपने-अपने घर में झांककर देखो कहीं पर ज्यादा कहीं पर कम पर यह सच्ची मेरी कहानी है तुम्हें बुरा लगे या भला लगे

तू जिंदगी को मत कोस तू मत हो उदास यूं बैठ

तू जिंदगी को मत कोस तू मत हो उदास यूं बैठ ----------------------------- तू जिंदगी को मत कोस तू मत हो उदास यूं बैठ तू कर्म कर तू कर्म कर तू फल की चिंता मत कर तू नित अपने पथ पर आगे बढ़ता चल बढ़ता चल तू अपने लक्ष्य की ओर खुद को आत्मकेंद्रित कर तू चिंतन कर, मत चिंता कर तू कर्तव्य पथ पर एकनत होकर आगे बढ़ता चल बढ़ता चल रास्ते में बाधाएँ आती हैं और आती ही रहेंगी रूकना नहीं ठहरना नहीं तू इन बाधाओं को तोड़ते हुए आगे बढ़ता चल बढ़ता चल तू मत सोच कि जिंदगी तुम्हें किस मुकाम पर ले जाएगी तू खुद को समय पर छोड़ दे वो खुद ब खुद फैसला कर देेगी तू मत बैठ नियति के भरोसे तू मत खुद भाग्य का फैसला कर तू मत हो निराश जिंदगी से जो होगा अच्छा ही होगा तू चेहरे पर हमेशा मुस्कान रख तू मत उलझ जिंदगी की उलझनों में जिंदगी का हिसाब-किताब टेढ़ा-मेढ़ा है तू चट्टान की तरह खड़ा रह तू खुद को मत टूटने दे तू खुद के हौसले को बुलंद कर इतना कि सफलता तुम्हारे कदम चूमे तू कर्म कर तू कर्म कर तू नित अपने पथ पर आगे बढता चल बढ़ता चल।               प्रियदर्शन कुमार

खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं

काव्य संख्या-202 =================== खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं =================== खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं उसे समझने की कोशिश करो। सबकुछ लफ्जों में बयां नहीं होता ईशारों में समझने की कोशिश करो। देश की आवो-हवा को महसूस करो किस तरफ बह रही है हवा। बहुत गर्म है देश का माहौल कुछ भी करने से पहले सोच लो। बच के तुम यहां रहना कभी भी सत्ते का शिकार हो जाओगे। धीरे से तुम सांसे लेना कहीं सुन न ले कोई। घूम रहे हैं सरकार के चमचे उन चमचों से तुम बचकर रहना। हर तरफ यहां पर खड़ी हैं जाति-धर्म-मजहब की दीवारें। रखी जा रही हैं तुम पर भी नजरें कितना भी नजरें चुराने की कोशिशें करो। खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं उसे समझने की कोशिश करो।                    प्रियदर्शन कुमार

झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो

झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो अच्छा लगता है सुनने में मुझे। अब तो आदत-सी पड़ गई है। झूठ के साथ जीना सीख लिया है मैंने तुम बोलो कि सत्ता में आने के बाद सबको रोजगार दूँगा तुम बोलो कि सबको रहने के लिए छत उपलब्ध करवाऊँगा तुम बोलो कि किसी को भूखा नहीं सोने दूँगा तुम बोलो कि किसी बच्चे की सांसे नहीं छीनी जाएगी तुम बोलो कि किसी के आँखों में आँसू नहीं होने दूँगा तुम बोलो कि किसानों को आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ेगी तुम बोलो कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि जातिवाद और साम्प्रदायिकता से मुक्त भारत का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि समता आधारित समाज का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि सामाजिक आर्थिक राजनीतिक न्याय उपलब्ध करवाऊँगा झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो अच्छा लगता है सुनने में मुझे अब तो आदत-सी पड़ गई है झूठ के साथ जीना सीख लिया है मैंने। प्रियदर्शन कुमार

सच में वो आदमी नहीं, है मौन प्रतिमा-सा

सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा जिनकी आँखे तो खुली है पर, देख पाने में असमर्थ है जिनके पास कान तो है पर, सुनने में असमर्थ है जिनके पास मुख तो है पर, बोलने में असमर्थ है सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। जल रहा है हमारा देश जाति-धर्म की आग में उड़ाई जा रही हैं सरेआम कानून की धज्जियां फिर भी, वो मौन है सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। वर्तमान में जीना छोड़ जा रहे हैं इंसान अतीत में अपने अस्तित्व की खोज में स्थापित करना चाहते हैं इंसान एक बार फिर अपने वर्चस्व को चुकाने को आतुर हैं इंसान इसकी कोई भी कीमत हो रहे हैं इंसान एक-दूसरे के खून के प्यासे शायद उन्हें खबर नहीं सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। शायद उन्हें इस आग से पहुंच रहा है कोई राजनीतिक फायदे शायद वो चाहते हैं कि उलझे रहे लोग हमेशा वर्चस्वता के उलझन में कोई उनसे ये न पूछे कि तुमने जनता के लिए काम क्या किया है? सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। बढ़ रही है समाज में गरीबी-भूखमरी बेगारी-बेरोजगारी मजबूर हैं युवा गलत रास्ते अपनाने को जिसकी उन्हे

वो माँ है

रिस-रिसकर खत्म हो जाती है उनकी जिंदगी न जाने किस बात की सजा मिलती है उन्हें पूरी जिंदगी खत्म हो जाती है उनकी जिंदगी उन्हें सजने-संवारने में और सुंदर बनाने में अपनी पूरी खुशियाँ लूटा देते हैं वो उनकी एक खुशी के लिए मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा हर जगह मत्था टेकते हैं वो हर जगह मन्नतें मांगते हैं वो उनके खुशी के लिए उनकी सुख-समृद्धि के लिए खींच लेते हैं वो उनके सारे दुखों को अपने ह्रदय में सींच देते हैं वो उनके ह्रदय को खुशियों से खुद भूखी रह जाती हैं उन्हें खिलाकर हमेशा राह तकती उनके आने की उनके माथे को चूमने की उनसे दो बातें करने की बदले में मिलती है उन्हें " सिसकियाँ " उन्हें आँखों में " आँसू " सुनने पड़ते है उन्हें " ताने " खाने के पड़ते हैं उन्हें " लाले " खोजते हैं वो रहने का " आसरा " किया जाता है उनके साथ व्यवहार " अछूतों " के जैसा हां ! वो कोई और नहीं वो माँ है वो माँ है। प्रियदर्शन कुमार

ओ मजदूर ओ मजदूर

ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत बड़ी-बड़ी अट्टलिकाएं बनी परी है तुम्हारे मेहनत का ही नतीजा है तुम्हारे कारण ही वे ऐशो-आराम की जिंदगी जीते हैं उल्टे तुम्हारा ही खून चूसा जाता है तुम्हें ही शूली पर चढ़ाया जाता है ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति का दूत क्यों नहीं तुम एक हो जाते क्यों नहीं आतताइयों के खिलाफ आवाज उठाते क्यों नहीं अपने हक के लिए आगे आते क्यों नहीं देश में क्रांति की लहर जगाते ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत कब तक तुम यूं ही चुपचाप नियति के भरोसे बैठे रहोगे कब तक तुम यूं ही जोकटियों से अपना खून चुसवाते रहोगे कब तक तुम यूं ही लुटेरों के हाथों खुद को लूटवाते रहोगे कब तक तुम यूं ही इनलोगों के हाथों का खिलौना बने रहोगे ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत तुम्हीं ने दुनिया को क्रांति का पाठ पढ़ाया तुम्हीं ने दुनिया में क्रांति का बिगुल बजाया तुम्हीं ने कितने ही साम्राज्य का तख्ता पलट किया तुम्हीं ने इनलोगों को घुटने टेकने को मजबूर किया ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत तुम अपने इतिहास को मत भूलो तुम अपने अतीत से

माँ-बाप

माँ-बाप के अहमियत का पता बच्चों को माँ-बाप के गुजर जाने के बाद चलता है। माँ-बाप जबतक आँखों के सामने होते हैं माँ-बाप की तबतक अहमियत नहीं होती। माँ-बाप की भूमिका में आते हैं जब बच्चे माँ-बाप के हर एक शब्द याद आते हैं उन्हें। माँ-बाप को काश, उनके रहते समझ पाते वे माँ-बाप को दिए  गए  पीड़ा से बच पाते वे। माँ-बाप की बात को अगर जहन में रख लेते माँ-बाप की कमी कभी खलती नहीं उन्हें। माँ-बाप    कभी   भी    मरते    नहीं      हैं माँ-बाप हमसाया बनके रहते बच्चों के साथ। माँ-बाप अपनी सारी खुशियाँ लूटा देते बच्चों पे माँ-बाप खींच लेते हैं सारे गम अपने बच्चों के। माँ-बाप के लिए सबसे बड़े दौलत होते हैं बच्चे माँ-बाप  को  फिर  भी  क्यूँ  रुलाते  हैं   बच्चे

हिन्दी

बदल रही है देश की आबोहवा, अंग्रेजीदां लोगों से, सिमट रही है हिन्दी, अंग्रेजीदां लोगों से, हम खो रहे हैं अपनी पहचान, अंग्रेजीदां लोगों के कारण से, अपने ही देश में लड़ रही है हिन्दी, अपने अस्तित्व बचाने को, मुट्ठी भर आए थे अंग्रेजीदां , अपने में समेट ले लिया पूरे भारत को, कर दिया भारत का विभाजन अंग्रेजीदां ने, भारत और इंडिया में, कर रहे हैं शासन, अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों पर, किया है हम पर कुठाराघात, अंग्रेजीदां लोगों ने, मारे-मारे फिर रहे हैं हम, अपनी पहचान को बचाने को, लड़ रहे हैं हम,  हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने को।                   प्रियदर्शन कुमार

ऐ समय फिर एक बार लौट आ

ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि अपनी गलतियों को सुधार सकूँ / अपने गलत निर्णय पर पुनर्विचार कर सकूँ / एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / अतीत का मूल्यांकन वर्तमान में करवाने की बजाय / एक फिर मुझे अतीत में ले चल / पश्चाताप के बोध से मुक्त मुझे कर / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / मैं लौट जाना चाहता हूँ / एक बार फिर से अतीत में / ताकि सोई हुई चेतना को जगा सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि खोई हुई चीजों पा सकूँ / उसके महत्व को जान सकूँ / उसे उचित स्थान दे सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि बिखरी हुई ऊर्जा को समेट सकूँ / गतिरोध को तोड़ सकूँ / लक्ष्य की ओर बढ़ सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि टूटे हुए रिश्ते को कायम कर सकूँ / सबको साथ लेकर चल सकूँ / एक बेहतर इंसान बन सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / घुमा तू घड़ी की सुइयों को विपरीत दिशा में / मिला तू, उनसे जो / दुनिया की आपाधापी में कहीं पीछे छूट गए हैं / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ........।                  प्रियदर्शन कुमार

कोशिशें

सागर तट पर खड़ा हो देख रहा मैं आती-जाती लहरों को बार-बार चट्टानों से टकराती लहरों को लहरों की जीवटता और जिजीविषा को उसके इस समर्पण को शायद वह मुझसे कुछ कहना चाहती है कहकर फिर चली जाती है शायद वह मुझे जीवन का उद्देश्य समझाना चाहती है मेरे गिरते मनोबल में फिर से उर्जा भरना चाहती है जय-पराजय से बाहर निकालकर कर्म करने की सलाह देती है मेरे जीवन को अर्थ देना चाहती है शायद इसलिए वह बार-बार आती है बार-बार समझाने की कोशिश करती है अपना उदाहरण मुझे देती है शायद मेरी सोयी हुई चेतना को जगाने की कोशिश करती है और आकर फिर चली जाती है पहर-कई-पहर तक टकटकी लगाए उसे देखता रहा मैं शायद उसकी भाषा को समझ पाता मैं शायद उससे जिंदगी को जीना सीख पाता मैं। प्रियदर्शन कुमार

प्रेम

सुरज में तपते देखकर / धरा पर प्यार आया बादल को / आ गया आँखों में आँसू / बस क्या था / बादल ने घेर लिया ज्वाला को / अपने आँसूओं से उसने/ ताप से मुक्त किया धरा को / बादल का समर्पण देखकर / भावुक हो गई धरा बेचारी / धरा के आँखों में खुशी के आँसू / और चेहरे पर मुस्कान की छटा / इन दोनों के निश्छल प्रेम से / बेचारा सुरज भी शर्मा गया / इस विहंगम दृश्य को देखकर / पेड़-पौधे-फूल-पत्तियाँ / नदी-झरना-पहाड़-पर्वत / झूम उठी सारी प्रकृति।         प्रियदर्शन कुमार

एक इमानदार आदमी

जन्म से वह नहीं था झूठा वह नहीं था बेईमान और फरेबी गरीबी की चोट खाता रहा है वह हरदम हर मुश्किलों का सामना करता रहा है वह हरदम अपनी ज़मीर बचाए रखने की कोशिश में न जाने क्या-क्या नहीं किया वह अभाव ने उसके जीवन के समीकरण बदल दिए उसमें बचपन से पहले जवानी आ गई और जवानी से पहले बुढ़ापा उसके चेहरे की झुर्रियां  दे रही थी उसकी गवाही थक-हार गया वह खत्म हो गई ऊर्जा दुनिया से लड़ने की उसकी आज कफन ओढ़ सो गया वह लेकिन कभी नहीं झुका वह हमारे सामने प्रश्न छोड़ गया वह आज उसके नाम के कसीदे पढ़ी जा रही है दुनिया में जब तलक था वह जिंदा मर-मर के जी रहा था तब सो रही थी दुनिया हां, वह कोई और नहीं वह था एक ईमानदार आदमी।                 प्रियदर्शन कुमार

ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं

ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने तुमपे उंगलियां उठाई उसे मंत्री बना दिया / जिसने आँख खोली उसे सदा के लिए सुला दिया / जिसने तुम्हारे चौखटे पर मत्था टेके उसे लालकिला दे दिया / जिसने बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया, सजा देने की बजाय हिन्दू-मुस्लिम में उलझन उलझा दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो भी माँगा उसे कुछ-न-कुछ जरूर दे दिया / किसी को गाय का ठेका दे दिया / किसी को श्रीराम की रक्षा करने का ठेका दे दिया / किसी को घर वापसी करने का ठेका दे दिया / लेकिन किसी को निराश नहीं किया / खाली हाथ नहीं लौटने दिया / जिसकी आवाज तुम तक नहीं पहुंच पायी / उसे मन की बात दे दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो भी माँगा दे दिया / माल्या ने लंदन मांगा तो लंदन दे दिया / नीरव-चौकसी ने विदेश में रहने की ईच्छा जाहिर की / तो उसे तथास्तु का आशिर्वाद दे दिया / जब सब की ईच्छाएं पूरी हो गई तो / काशी में मंदिर तुड़वाना आरंभ कर दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो वरदान माँगा / उसे स्वीकार कर लिया।          प्रियदर्शन कुमार