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दंगा

काव्य संख्या-224 ================ दंगा ================ साम्प्रदायिकता की आग में ख़त्म हो गये सब रिश्ते नाते उन बस्तियों को जला दिया उन्होंने, जिनमें वर्षों से साथ रह रहे थे हम सारे, थी मुस्कान उनके होंठों पर, पता नहीं नज़र लग गई किसकी उनको नफ़रत में जी रहे हैं वो आंखों में लहू आ गये हैं उनके हर तरफ़ मातम है हर आंखों में आंसू हैं बस्तियों में पसरा सन्नाटा है हाथों की मेहंदी भी नहीं उतरी थी शौहर के उठ गये जनाजे मां खाने पर इंतजार कर रही थी बेटे की बेटा नहीं, पर लाश पहुंच गई उसकी कितनों के सर से उठ गया साया अनाथ हो गए हैं बच्चे सारे कभी ईद-दिवाली मनाते थे साथ मिलकर आज़ हो गये हैं ख़ून के प्यासे भाईचारे के रिश्तों में ज़हर घोल दिए राजनेताओं ने सत्ता में आने की खातिर बांट दिया लोगों को लोगों में लाल कर दिया धरती सीना भाई को भाई से लड़ाने में अच्छा था, गुलाम देश था क्या मिली आजादी से हमें व्यर्थ के ख़ून बहाएं महापुरुषों ने देश को आजाद कराने में तोड़ दिया उनके सपनों को लहूलुहान किया भारत को वर्षों लग गये बस्तियां बसाने में पर, देर न लगी उसे मिटाने में घर

गुड़िया

काव्य संख्या-223 ================= गुड़िया ================= है जिम्मेदारियों का अहसास तभी तो आगे बढ़ रहा हिन्दुस्तान। पेट की आग और देश की परवाह दोनों को साथ लेकर बढ़ रही है गुड़िया।। न दुनिया की परवाह कि क्या कहेंगे वो नि:संकोच दायित्वों को निभा रही है गुड़िया। देख रही है कब तक अंजान बनीं रहेंगी दुनिया मौन होकर बहुत कुछ बयां कर रही गुड़िया है।। सवाल हैं उनके बहुत नीति-निर्माताओं से लेकिन एक ज़िम्मेदार लोगों की तलाश कर रही है गुड़िया। जिम्मेदार लोगों की बहुत कमी है आज़ यहां इसलिए जिम्मेदारी उठाने को पढ़ रही है गुड़िया।। बचपन छिन गया उसका उसे उसकी परवाह नहीं आगे से ऐसा नहीं हो इसलिए पढ़ रही है गुड़िया। खिलौनों को छोड़ हालातों से किया सामना उसने उठते गिरते खुद को संभालते आगे बढ़ रही है गुड़िया।।                                                   प्रियदर्शन कुमार

राष्ट्रवाद बनाम् अंधराष्ट्रवाद

                    राष्ट्रवाद बनाम अंधराष्ट्रवाद =================================                बहुत बांटे घर-घर जाकर तूने पर्चे,                     पर बांट न पाया प्यार को।                         जा तुझे नकार दिया,             रोक न पाया तू जनता के प्रतिकार को।। अरविंद केजरीवाल ने राष्ट्रवाद की जो नयी परिभाषा दी है जो यह कहता है कि असली राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम, देशभक्ति और देशप्रेम वह है जो लोगों को अच्छी शिक्षा, अच्छा स्वास्थ्य, शुद्ध जल, बिजली, सड़क, रोज़गार मुहैया करवाए। इससे बड़ी राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति कुछ भी नहीं है। बीजेपी का राष्ट्रवाद अंधराष्ट्रवाद है। अरविंद केजरीवाल का राष्ट्रवाद बीजेपी के राष्ट्रवाद की परिभाषा से बिल्कुल विपरीत  है। बीजेपी का राष्ट्रवाद जो पश्चिम के राष्ट्रवाद की अवधारणा के कहीं अधिक करीब है, जो यह कहता कि एक राष्ट्र वही हो सकता है जिसके अंतर्गत एक जाति, एक धर्म और एक भाषा बोलने वाले के लोग आते हों। राष्ट्रवाद की यह अवधारणा उस राष्ट्र की जनता में इगो को जन्म देता है जिसका परिणाम होता है उनके दिल में घृणा, द्वैश और नफ़रत की भाव

प्रतिकार

बहुत बांटे घर-घर जाकर तूने पर्चे, पर बांट न पाया प्यार को। जा तुझे नकार दिया, रोक न पाया तू जनता के प्रतिकार को।। प्रियदर्शन कुमार

शिक्षा और समाज : वर्तमान संदर्भ

शिक्षा और समाज : वर्तमान संदर्भ ===========   ========      अक्सर कहा जाता है कि शिक्षा किसी भी समाज के उन्नति की नींव होती है। शिक्षा के द्वारा ही किसी भी समाज और देश को बुलंदियों पर पहुंचा जा सकता है। ऐसे में सहज ही यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि वह उन्नति या बुलंदी किस प्रकार की हो? क्या जिसमें बड़ी-बड़ी अटल्लिकाएं हो ? क्या वह मानव के भौतिक सुखों को पूरा करने वाले सारे साजों-सामान हो जिसके लिए उन्हें कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े? माफ कीजिएगा, अगर शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यह है, तो इसका मतलब है कि हम शिक्षा के मूल अर्थ को समझ नहीं पाएं हैं, जिसे समझने की जरूरत है। यही नासमझी हमारे समाज को पतनशीलता के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है।               शिक्षा का मतलब होता है संस्कार। जब हम संस्कार की बात करते हैं तो इससे हमारा तात्पर्य है- मूल्य, नैतिकता, आचार-विचार, शिष्टाचार आदि से। जिससे हमारा अलगाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। हम विकास के उस रास्ते पर चल पड़े हैं जहां पहुंच कर हमारी संवेदनाएं मृतप्राय हो जाती हैं। हमारी सोच 'हम' से सिमट कर 'मैं' पर आकर रूक जाती हैं। हम भूल चुके

सुनो कवि

सुनो कवि भावनाएँ होती हैं बहुत ही संवेदनशील खाद्य-पानी मिलाकर इन्हें उर्वर बनाया जाता है ताकि जन भावनाओं के साथ खेला जाए जनता की भावनाओं का राजनीतिकरण कर चुनाव में उपयोग किया जाए कभी धर्म के नामपर साम्प्रदायिकता फैलाई जाए तो कभी जाति व्यवस्था के नामपर समाज में घृणा फैलाई जाए कभी लव जिहाद तो कभी घर वापसी के नामपर रोज नये-नये सगुफे छोड़ी जाए जनमानस इन्हीं में उलझकर रह जाए कोई इनसे सवाल नहीं पूछे कि आपने जनकल्याण के लिए क्या-क्या कदम उठाए? उनकी राजनीति की दुकानें चलती रहे। सुनो कवि ये नेतागण होते हैं बहुत बड़े दोगली किस्म की प्रजाति के इनके लिए कोई मायने नहीं रखता संवेदना सहानुभूति नैतिकता लोक-धर्म लोक-मर्यादा लोक-कल्याण समाज कल्याण जैसे शब्दों के लिए अपनी राजनीति चमकती रहे जनमानस आपस में लड़-मरती रहे।                           प्रियदर्शन कुमार