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21वीं सदी

काव्य संख्या-201 ============================ 21वीं सदी ============================ 21वीं  सदी  में भारत  की तस्वीर कैसी बन गई मूल्य-नैतिकता आचार-विचार सब लुप्त हो गई। कहां से हम चले थे और कहां पहुंच गए हम अपनी परंपराओं को कैसे भूल गए। लोकलाज-शर्मों-हया सबको भूलाकर आज बहन-बेटियां कैसी बेपर्द हो गई । खुश  हैं  माँ-बाप  यहां  कि हम  मॉडर्न  हो  गए अपनी ही बेटियों के अर्द्धनग्नता पर गर्व कर रहे। मर रहा किसान यहां लूट रही बेटियों की आबरू और कह रहे हैं हम भारत नयी इबारत लिख रहा। रिश्ते-नाते  सब  टूटकर  ऐसे  बिखर  गए एक-दूसरे से आँखें मिलाने से भी बच रहें। समाज में आज ये कैसी लहर  चल पड़ी अपने ही संस्कारों को हमने भूला दिया। हमने अतीत को भूलकर वर्तमान में खो गए धर्म-जाति ऊंच-नीच के दलदल में फंस गए। स्वतंत्रता समानता बंधुत्व की कसमें खाई थी उन सबको भूलाकर स्वार्थ सिद्धि में लग गये। हमने कभी  दुनिया  को लोहा  मनवाया था आज हम उसी दुनिया के पिछलग्गू बन गए। 21वीं सदी में भारत की तस्वीर  कैसी  बन गई मूल्य-नैतिकता आचार-विचार सब लुप्त हो गई।                                

मैं

मैं चाहता हूँ कुछ ऐसा कर जाऊं कि दुनिया अपने दिल में पनाह दे मुझे मैं चाहता हूँ कुछ ऐसा लिख जाऊं कि वह तासीर बन जाएँ मैं चाहता हूँ कि हर लाईब्रेरी का एक हिस्सा मैं बन जाऊं मैं चाहता हूँ कि हर एक की मुस्कान बन जाऊं मैं चाहता हूँ कि गुमनामी की दुनिया से निकलकर एक अमिट छाप छोड़ जाऊं चाहता हूँ कुछ ऐसी तान लिख दूं कि हर लवों पर गुगगुनाया जाऊं चाहत नहीं मुझे भौतिकता की चाहत तो है बस अपने नाम की और नहीं कुछ भी कामना है मेरी मैं भी मर जाऊं तो भी कोई फर्क पड़ता नहीं लेकिन बस मेरी आकांक्षा है कि हर धड़कन की मैं आवाज बन जाऊं मैं अक्सर सोचता हूँ कि कुछ ऐसा कर जाऊं कि दुनिया याद रखे मुझे।           प्रियदर्शन कुमार

मा.. एँ मरती नहीं कभी

----------------------------- माँ.. एँ मरती नहीं कभी ----------------------------- माँ.. एँ मरती नहीं कभी वो रहती हैं हम साया बनके हमेशा हमारे साथ जब भी दुखित मैं होता हूँ मुख से निकलता यकायक माँ एक क्षण में मानो जैसे मेरा सारा दुख हर लिया हो कोई वह कोई और नहीं वह माँ है मेरी जिसकी दुआएं हमेशा रहती है मेरे साथ बेचैन मन शांत हो जाता है दुख की दवा मिल जाती है मैं जहां भी जाता हूँ मेरी माँ की दुआएँ मेरे साथ चलती है वह कहती है कि तू आगे बढ़ मत देख पीछे मुड़कर मैं हूँ, तू मत सोच, तू आगे बढ़ वह मुझे हौसला देती है हमेशा आगे बढ़ने की जब भी ठेस लगती है उसकी दुआएं मुझे थाम लेती है मैं फिर उठ खड़ा हो चल पड़ता हूँ अपने पथ पर माँ, माँ होती है माँ.. एँ मरती नहीं कभी वो रहती हैं हम साया बनके हमेशा हमारे साथ।    प्रियदर्शन कुमार

सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा

----------------------------- सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा ----------------------------- सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा जिनकी आँखे तो खुली है पर, देख पाने में असमर्थ है जिनके पास कान तो है पर, सुनने में असमर्थ है जिनके पास मुख तो है पर, बोलने में असमर्थ है सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। जल रहा है हमारा देश जाति-धर्म की आग में उड़ाई जा रही हैं सरेआम कानून की धज्जियां फिर भी, वो मौन है सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। वर्तमान में जीना छोड़ जा रहे हैं इंसान अतीत में अपने अस्तित्व की खोज में स्थापित करना चाहते हैं इंसान एक बार फिर अपने वर्चस्व को चुकाने को आतुर हैं इंसान इसकी कोई भी कीमत हो रहे हैं इंसान एक-दूसरे के खून के प्यासे शायद उन्हें खबर नहीं सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। शायद उन्हें इस आग से पहुंच रहा है कोई राजनीतिक फायदे शायद वो चाहते हैं कि उलझे रहे लोग हमेशा वर्चस्वता के उलझन में कोई उनसे ये न पूछे कि तुमने जनता के लिए काम क्या किया है? सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-स

टूटते सपने

इन नन्हीं-सी आँखों ने बड़े-बड़े सपने पाले हैं कुछ कर गुजरने की इनमें चाहत के हिलोरें हैं लेकिन हालात के आगे ये बेबस नजर आते हैं दिखाई पड़ते हैं इनके टूटते हुए सपने गरीबी की थपेड़ों से चोट खा-खाकर ये टूटते हुए दिखते हैं भूख की तपिश में इनके जल गए सपने सारे हैं खेलने-कूदने की उम्र में पेट भरने की सोचते हैं जिस हाथ में कलम होने थे कि खुद की इबारत लिखते ये आज उस हाथ से ये कचरों में फेंक दिए गए जूठन को खाते हैं हमारे नीति-निर्माता विकास का दंभ भरते हैं यहां रोटी के दो टूकरे खाने को बच्चे तरसते हैं कितने संवेदनहीन हो गए लोग कि 'स्व' के संकीर्ण दायरे में सिमटे पड़े रहते हैं कि बच्चों के भविष्य को उजड़ते देखकर भी उनसे अपनी आँखें फेर लेते हैं कितने निर्लज्ज हैं कि लोग खुद को मानव कहलाने पर गर्व महसूस करते हैं।       प्रियदर्शन कुमार

नीतियां नहीं नियत ठीक करो

कोई जाकर पूछो उनसे कैसे राजा हो तुम हे राजन् ! तूने कैसी नीतियाँ बनायीं प्रजा हो गई है भिखारी क्या ऐसे ही दिन दिखाने को राजा चुना था तुम्हें उन्होंने प्रजा कर रही है त्राहिमाम करोड़ों प्रजा भुखे हों फूटपाथ पर सोते हों शिक्षा स्वास्थ्य शुद्ध पेयजल उन्हें  उपलब्ध नहीं जिसकी परवाह तुम्हें नहीं ऐसे कैसे तुम खामोश रह सकते किस विकास का तुम दंभ भरते हो जब प्रजा के चेहरे मुरझाए हों लज्जा नहीं आती है तुम्हें सिर्फ घोषणाएं नहीं कार्यान्वयन भी करो उनका बुल्लेट ट्रेन नहीं उन्हें रोटी उपलब्ध करवाओ 200 फीट की मूर्ति नहीं उन्हें स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करवाओ डिजिटल इंडिया नहीं उन्हें अच्छी शिक्षा उपलब्ध करवाओ सिर्फ योजनाएं नहीं शुद्ध पेयजल उपलब्ध करवाओ कोई जाकर बोलो उनसे नीतियां नहीं नियत ठीक करें अपने।                         प्रियदर्शन कुमार

मातृभूमि की वेदना

----------------------------------- सिसक रही है भारत माता, अपने ही लालों की करनी से / हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, पालन-पोषण में, कभी न की अंतर उसने / आखिर क्या परवरिश में कमी रह गई, कि खून के प्यासे हो गए एक-दूजे के / भाई पर भाई टूट रहे हैं, रिश्ते-नाते सारे टूट रहे हैं / कभी मनाते थे साथ मिलकर, होली-ईद-रमजान-दीवाली, आज बन गये हैं हम अनजाने / दो सौ बरस बंधी रही माँ, गुलामी की जंजीरों से / माँ को मुक्त कराने की खातिर, हँसते-हँसते चढ़ गए थे शूली पर, माँ के लाखों सपूत ने / कैसा समय का कालचक्र है, कि आज सतायी जा रही है माँ, अपने ही लालों के हाथों से / द्रवित हो रही है उसकी आत्मा, ऐसे कुलंगारो से / खून से रंगने चल पड़े हैं, माँ के ममता की आंचल को / सूख गया है आँखों पानी, निर्लज्ज बन गए सारे कपूत।            प्रियदर्शन कुमार

प्रकृति

हे मानव ! मत लगाओ प्रकृति पर प्रतिबंध मत तोड़ों प्रकृति से रिस्ता ऐसे पथ पर मत चलो जो तुम्हें विकास की बजाय विनाश की ओर अग्रसर कर दे मत हो तू अपने अस्तित्व को मिटाने को आतुर तू पा नहीं सकता प्रकृति पर नियंत्रण तू डाल-डाल वो पात-पात विकास करो आगे बढ़ो लेकिन प्रकृति से मत नाता तोड़ों उसे साथ लेकर चल मत हो तू उससे विलग तू डर प्रकृति के प्रकोप से तू उसके संकेत को समझ तू सम्भल मत दे तू मृत्यु को आमंत्रण तू मत कर उसकी सुंदरता को खत्म वह तुझे पालती है पोषती है वह तुझे पनाह देती है तू मत प्रकृति के साथ नमकहरामीपन कर तू भी उसे अपना तू उससे प्रेम कर उसके सान्निध्य में रह तुम्हें शांति मिलेगी।

संसद में देखो आजकल क्या हो रहा है लोकतंत्र का गला कैसे घोंटा जा रहा है।

======================= संसद में देखो आजकल क्या हो रहा है लोकतंत्र का गला कैसे घोंटा जा रहा है। ======================= संसद में देखो आजकल क्या हो रहा है लोकतंत्र का गला कैसे घोंटा जा रहा है। जिस स्वतंत्रता के लिए लोगों ने जाने गवाई थी आज उसी स्वतंत्रता को हमसे छीना जा रहा है संसद में देखो आजकल क्या हो रहा है लोकतंत्र का गला कैसे घोंटा जा रहा है। हमने  उसे  भेजा था अपना प्रतिनिधि बनाकर आज वो राजा बन हमें ही आईना दिखा रहा है संसद में देखो आजकल क्या हो रहा है लोकतंत्र का गला कैसे घोंटा जा रहा है। पटेल सुभाष भगत को वोट बैंक माना जा रहा है उनकी उपलब्धियों को कैसे भुनाया जा रहा है संसद में देखो आजकल क्या हो रहा है लोकतंत्र का गला कैसे घोंटा जा रहा है संसद  में  आरोप-प्रत्यारोप  का  दौर  चल रहा है पूछो तो कहते हैं भारत विश्वगुरू बनने जा रहा है संसद में देखो आजकल क्या हो रहा है लोकतंत्र का गला कैसे घोंटा जा रहा है दो निवाले के बिना मर रही है जनता यहां वो चांद पर  ले  जाने की बात  कर रहा है संसद में देखो आजकल  क्या  हो रहा है लोकतंत्र  का गला कैसे घोंटा जा रहा है। सत्

खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं गर तुम समझ सको तो समझो।

खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं गर तुम समझ सको तो समझो। सबकुछ लफ्जों में बयाँ नहीं होते हैं गर इशारों में समझ सको तो समझो। हर तरफ पसरा हुआ है सन्नाटा गर सन्नाटे को समझ सको तो समझो। शहरों का मिजाज बदला-बदला सा है गर खुद को बदल सको तो बदलो । हवाओं ने भी अपनी दिशा बदल ली है गर अकेला आगे बढ़ सको तो बढ़ो । हर तरफ नफरतों का बोलबाला है गर प्यार के फूल खिला सको तो बढ़ो। हर तरफ खतरा ही खतरा है गर आगे बढ़ सको तो बढ़ो। प्रियदर्शन कुमार

माँ

___________________ माँ तुम्हारे आँखों में आँसू मुझसे देखा नहीं जाता मैं बदकिस्मत हूँ कि तुम्हारे आँसूओं को पोछ नहीं पाता तुम दुनिया के आगे कभी हार नहीं मानी पर तुम्हें घर में हारते हुए मुझे अच्छा नहीं लगता न जाने तुम्हारे परवरिश में क्या रह गई थी कमियां जिसकी सजा तुम्हें पाते हुए देखता हूँ मुझ जैसा बेटा मिला तुमको जो तुम्हारे द्रवित ह्रदय को शांत भी न कर पाया न जाने तुम्हारे दूध कब पानी बनकर बह रहे हैं मेरे नसों में कि तुम्हारे आँसूओं को देखकर भी मेरी नसें नहीं फड़फाड़ाती हैं माँ कभी ऐसे औलाद मत मांगना कि तुम्हारी आँसूओं को पोछ पाने में खुद को अक्षम पाता हो तुम्हें सताता हो तुम्हें रुलाता हो। प्रियदर्शन कुमार

दीवारों के भी कान होते हैं

--------------------------------------- यहां दीवारों के भी कान होते हैं --------------------------------------- जरा-सा धीरे बोलो / कहीं कोई सन न ले/ यहां दीवारों के भी कान होते हैं / हर तरफ साजिशें चल रही हैं / चारों ओर सन्नाटा पसरा है / शायद किसी तूफान के आने का अंदेशा है / सड़क सुनसान है / बीच-बीच में / ठक-ठक लाठी की आवाज सुनाई पड़ जाती है / शायद वो हमारी आवाज को बंद करने के लिए है / कभी-कभी पों-पा पों-पा पों-पों पों-पा की भी आवाज़ सुनाई पड़ जाती है / शायद हिन्दू धर्म खतरे में है / उसी को बचाने का संकेत दे रहा हो / पत्रकारों ने भी सुरक्षित स्थान ढ़ूँढ़ लिया है / उन्होंने अपने कलम को गिरवी रख दिया है / हुयीं-हुयीं गाड़ियों की आवाज़ आ रही है / प्रशासन भी चौकन्ना है / कहीं कोई तंत्र के खिलाफ बगावत न कर दे / जनता कहीं हिसाब न ले लें / यहां सिर्फ जनता को वोट देने का अधिकार है / हिसाब मांगने का अधिकार नहीं / क्योंकि यहां लोकतंत्र है / हिसाब-तंत्र नहीं / किसान मरता है तो मरने दो / बेरोजगारी बढ़ती है तो बढ़ने दो/ किसी की इज्ज़त लूटती है तो लूटने दो / जनता का पैस

नदियों की मौन व्यथा

काव्य संख्या - 152 -------------------------- नदियों की मौन व्यथा --------------------------- चलो आज सुनाता हूँ नदियों की मौन व्यथा कल-कल छल-छल करती धाराओं से शायद निकलती है करूण ध्वनि शायद बयाँ करना चाहती है अपनी पीड़ा को समय नहीं किसी को उसकी व्यथा सुनने की शायद वह पूछना चाहती है क्यों बांध दिया है मुझे जंजीरों से? किस बात की सजा मिली मुझे? क्यों बाधित की गयी मेरी स्वतंत्रता को? क्यों गंदला कर दिया है तूने मेरे स्वच्छ औ' निर्मल जल को? किसी भी सभ्यता की शुरुआत मुझसे होती है औ' मुझपर खत्म शायद तू भूल गया है सिंधु घाटी सभ्यता को हिमालय की गोद से निकलकर चट्टानों से चोट खा-खाकर सर्दी हो गर्मी हो हर मौसम में मैं पहुँचती हूँ तुम्हारे तक मैं तुम्हें जीवन देती हूँ तृप्त करती हूँ तुम्हारी क्षुधा को बदले मैं तुमसे नहीं कुछ मांगती फिर भी तुम मुझे खून के आँसू रुलाते हो फिर भी मेरे दिल से तुम्हारे लिए बद्दुआ नहीं निकलती है मैं अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करती मैं तुम्हें पालती-पोषती हूँ बच्चों का भी कुछ कर्तव्य है तुम भी करो अपने कर्तव्य का निर्वाह तुम क्

बचपन कितना मनमोहक है

================== बचपन कितना मनमोहक है ================== देखो बचपन कितना अच्छा है कितना खुश यह बच्चा है न पढ़ाई-लिखाई की चिंता न मम्मी-पापा के डांट की बिल्कुल निर्भीक न किसी प्रकार की जिम्मेदारी है न किसी भी चीज की चिंता न सामाजिक बंधन है न किसी प्रकार का विरोध न दुनिया-दारी की चिंता है न पारिवारिक माया-मोह हँसता-खेलता बच्चा है अपने एक मुस्कान से सबका दिल जीत लेता है स्वच्छ निर्मल मन बिल्कुल कोरा कागज छल-कपट के लिए जगह नहीं न इसे जाति का भान है न ही किसी मजहब का ज्ञान ऊंच-नीच मालूम नहीं उसे नहीं मालूम है उसे अमीरी-गरीबी यह तो केवल बच्चा है जो केवल वात्सल्य का भूखा है जहां मिलता है प्यार उसे उसी के पास चला जाता है कौन है अपना, और कौन पराया नहीं है उसे पहचान परिवार-समाज सबका चहेता है सबके यहाँ आता-जाता है सबका स्नेह पाता है सच में, बचपन कितना मनमोहक है।                प्रियदर्शन कुमार

ख्वाहिशें

काव्य संख्या-198 ============ ख्वाहिशें ============ ख्वाहिशें मेरी भी थीं, उसके पीछे भागा मैंने भी था, लेकिन पूरी हो न पायी , शायद समय को मंजूर न था, शायद इसीलिए मैं जहां का तहां ही रह गया, लेकिन, शिकायतें नहीं हैं, मुझे मेरी जिंदगी से, बस, यहीं सोच कर, जो आ पड़ा मेरे सामने, अपना मुकद्दर समझ, उसे अपना लिया मैंने, कट गई हैं आधी जिंदगी, कट जाएंगी आधी जिंदगी, बस, एक ही चीज सीखें हैं, मैंने अपनी जिंदगी से, परिस्थितियां कैसी भी आए, हमेशा मुस्कुराते रहना, जान चुका हूँ, जिंदगी से मैंने, न सुख स्थिर है, और न दुख शाश्वत है, फिर इससे घबराना कैसा, जो पर जाए सामने, उसे हँसते हुए झेल जाना है हां, जिंदगी यही है, जिंदगी का मतलब यही है समय रहते समझ जाएं, तो अच्छा है गर नहीं समझ पाए, तो, जिंदगी समझा ही देगी, फिर अपने वश का कुछ भी नहीं, हाथ मलने के अलावा। प्रियदर्शन कुमार