यथार्थ से हुआ सामना

काव्य संख्या-214
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यथार्थ से हुआ सामना
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सपनों में जी रहा था मैं
धरती को छोड़
आसमान में उड़ रहा था मैं
जबकि खुद के पंख नहीं थे मेरे
फिर भी उसे अपना समझ रहा था मैं
जिंदगी को बहुत आसान
समझ रहा था मैं
सच्चाई से वाकिफ था
फिर भी इसे झुठला रहा था मैं
जब सच में
यथार्थ से हुआ सामना
एकदम डर-सा गया था मैं
सामने बस अंधेरा-ही-अंधेरा था
रास्ते नहीं दिख रहे थे मुझे
लड़खड़ा रहे थे कदम मेरे
बेजान-सा हो गया था मैं
बैसाखी की जरूरत थी मुझे
लेकिन बैसाखियों के सहारे
कब तक चलता मैं
जब सच में
यथार्थ से हुआ सामना
सहम-सा गया था मैं
अंतर्विरोध में जी रहा था मैं
कोई भी निर्णय लेने से डर रहा था मैं
खुलकर बोलने से डर रहा था मैं
क्योंकि समय नहीं था साथ मेरे
कुछ थे अब भी साथ मेरे
बढ़ा रहे थे हौसले मेरे
शायद कुछ विश्वास बचा था मुझपर
जिसके सहारे जी रहा था मैं
जब सच में
यथार्थ से हुआ सामना
घबराया गया था मैं।
प्रियदर्शन कुमार

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