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मैं और मेरी कविता

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मैं और मेरी कविता ============== लिखने को बहुत कुछ है,  मगर, लिख नहीं पाता हूं, बहुत कुछ लिखने की चाह में,  कुछ नहीं लिख पाता हूं, कांपते हैं हाथ मेरे,  लड़खड़ाते हैं शब्द मेरे,  साथ नहीं देते कलम मेरे,  साथ नहीं देते हैं शब्द मेरे,  मौन हैं कलम मेरे,  मौन हैं शब्द मेरे,  मौन हूं मैं विचलित हैं मन मेरे तोड़ना चाहता हूं मैं,  लौटना चाहता हूं मैं,  एक बार फिर कविता दुनिया में,  जो कहीं मुझसे दूर चली गई है,  या ये कहूं,  मैं उससे दूर हो गया हूं,  जबसे छूटा है साथ तेरा, तबसे टूटा है मन मेरा, पन्नों को अक्सर पलटता हूं, पुरानी कविताओं को पढ़ता हूं, अकेलेपन को दूर करती है मेरी कविता, मेरे होने का अहसास दिलाती है मेरी कविता। प्रियदर्शन कुमार

छंद

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छंद

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नफ़रत को भी मैं देखूंगा, मोहब्बत की नज़रों से।  कोई हर्ज नहीं मुझे झुकने में, अगर नफ़रत मोहब्बत में बदल जाए। प्रियदर्शन कुमार

जनमानस की आवाज़

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काव्य संसार - 232 ===================== जनमानस की आवाज़ ===================== हे देश के तथाकथित कर्णधार, बेशर्म, बेहायी, दुराचारी, नरसंहारी सरकार, अरे तुम कितनों को दबाओगे,  मुंह बंद करवाओगे,  सेवा करने से रोकोगे,  हम हारेंगे नहीं, डरेंगे नहीं, थकेंगे नहीं, चुप रहेंगे नहीं, तुम इडी लगाओ, सीबीआई लगाओ या लगाओ आईबी जो करना है, जो लगाना है, सब कुछ करो, एक दिन खुद थक जाओगे,  मर जाओगे,  लेकिन, लेकिन सेवा करने से किसी को नहीं रोक पाओगे, यह दधिचि की, बुद्ध की, नानक की, गांधी-सुभाष की धरती है, उन्होंने खुद के लिए नहीं,  दूसरों के लिए ज़िया है और बलिदान दिया है, चंद लोगों को मारकर,  उनका मुंह बंद करवाकर, तुम कैसे समझ गये, कि भारत भूमि सेवा-भाव से शून्य है, संवेदनाओं से शून्य है, हां ! हां ! हर युग में,  तुम जैसे समाज को कलंकित करने वाले, आतताइयों का इस धरती पे जन्म हुआ, लेकिन जान लो उनका भी नाश हुआ, कोई अमर नहीं हुआ, फिर भी तुम्हारी आंखें नहीं खुलती बेशर्म, बेहाया करो जो करना है तुम्हें, तुम कभी रोक न पाओगे, किसी को जन-मानस की सेवा करने से।                                प्रियदर्शन कुमार

हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने

काव्य संख्या-231 ========================= हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने ========================= तुमसे दो पल की खुशी क्या मांग ली हमने,  चंद वोटों की खातिर हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने। एक उम्मीद दिखी थी तुम में,  उन उम्मीदों को अवसर में भुना लिया तुमने।  इतने नीचे गिर जाओगे,  कल्पना नहीं की थी तुमसे।   सत्ता का आना जाना लगा रहेगा,  पर देश बचाना जरूरी नहीं समझा तुमने।  देश बनता है जनता से,  पर जनता से हमदर्दी नहीं तुम्हें। श्मशान में ऐसे लाश जल रही है, मानो दीवाली मन रहा हो जैसे। खुद का घर अंधेरे में डूबा हो, दुनिया को दीपक दिखाने तुम निकले। पल-पल सांसे छोड़ रहीं हैं जीवन को, इसकी तनिक भी परवाह नहीं तुम्हें। तन-मन-धन बाहुबल से लगे रहे तुम, सत्ता को हथियाने में। दुनिया लड़ती रही महामारी को हराने में, उनमें एक तुम भी थे, जो लाउ-लश्कर के साथ लगे थे, एक नारी को हराने में। अरे जनता ही न रही तो, राज करोगे तुम किसपे। बेशर्मी की तब और हद हो गई, जन का जन की मदद करने पर, एफआईआर कर दिया तुमने। एक के बाद एक फरमान जारी किए तुमने, ताकि जनता आवाज न उठाए। ये कैसा फरमान है तुम्हारा, मारो भी, और रो

परिस्थितियां जितनी प्रतिकूल होंगी मानिए आपकी इंतिहा उतनी ही कठिन होंगी और आप उतने ही मजबूत होंगे और आपकी सफलता उतनी ही ऐतिहासिक होंगी। प्रियदर्शन कुमार

हां ! मैं कविता हूं

काव्य संख्या-230 =========== हां ! मैं कविता हूं =========== हां ! मैं कविता हूं  मैं स्थिर नहीं,  मैं गतिशील हूं  समय के साथ बदलता हूं  परिस्थितियों के अनुरूप ढ़लता हूं मैं शांति हूं मैं क्रांति हूं मैं लवों पर मुस्कान हूं मैं आंखों में समंदर हूं मुझे न किसी से बैर है मेरा न कोई दुश्मन है मैं सुख-दुख का साथी हूं हां ! मैं कविता हूं। मैं आयना हूं खुद के अंदर झांकने की, लोगों को सलाह देता हूं मैं दीपक हूं  दूसरों को रास्ता दिखाता हूं मैं अभिभावक हूं मार्गदर्शन करता हूं मैं अतीत को भूलता नहीं हूं मैं वर्तमान में जीता हूं मैं भविष्य को संवारता हूं हां ! मैं कविता हूं। मैं चेतना हूं मैं संवेदना हूं मैं विरह में हूं मैं मिलन में हूं मैं वेदना में हूं मैं प्रेम में हूं मैं 'स्व' में भी हूं मैं 'पर' में भी हूं मैं लघुता में भी हूं मैं विराटता में भी हूं मैं यति गति लय हूं हां ! मैं कविता हूं। मेरे अंदर जीवटता है मेरे अंदर जीजिविषा है मेरे अंदर ऊर्जा है मेरे अंदर उत्साह है मेरे अंदर करूणा है मेरे अंदर स्नेह है हां ! मैं कविता हूं मैं गरीबों की कुटिया में भी हूं मैं राजा के महलो