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हां ! मैं कविता हूं

काव्य संख्या-230 =========== हां ! मैं कविता हूं =========== हां ! मैं कविता हूं  मैं स्थिर नहीं,  मैं गतिशील हूं  समय के साथ बदलता हूं  परिस्थितियों के अनुरूप ढ़लता हूं मैं शांति हूं मैं क्रांति हूं मैं लवों पर मुस्कान हूं मैं आंखों में समंदर हूं मुझे न किसी से बैर है मेरा न कोई दुश्मन है मैं सुख-दुख का साथी हूं हां ! मैं कविता हूं। मैं आयना हूं खुद के अंदर झांकने की, लोगों को सलाह देता हूं मैं दीपक हूं  दूसरों को रास्ता दिखाता हूं मैं अभिभावक हूं मार्गदर्शन करता हूं मैं अतीत को भूलता नहीं हूं मैं वर्तमान में जीता हूं मैं भविष्य को संवारता हूं हां ! मैं कविता हूं। मैं चेतना हूं मैं संवेदना हूं मैं विरह में हूं मैं मिलन में हूं मैं वेदना में हूं मैं प्रेम में हूं मैं 'स्व' में भी हूं मैं 'पर' में भी हूं मैं लघुता में भी हूं मैं विराटता में भी हूं मैं यति गति लय हूं हां ! मैं कविता हूं। मेरे अंदर जीवटता है मेरे अंदर जीजिविषा है मेरे अंदर ऊर्जा है मेरे अंदर उत्साह है मेरे अंदर करूणा है मेरे अंदर स्नेह है हां ! मैं कविता हूं मैं गरीबों की कुटिया में भी हूं मैं राजा के महलो

हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है

काव्य संख्या-229 ============================= हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है। ============================= हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है न्याय को सत्ता का रखैल बनते देखा है,  बाइज्जत बरी होते हत्यारों को भी देखा है,  हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है।  निर्भया के साथ न्याय होते देखा है,  दलित महिला के साथ भी न्याय होते देखा है, हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है।  जिस्म को भी जाति में बंटते देखा है,  जिस्म को भी वर्ग में बंटते देखा है,  हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है। मुजफ्फरपुर रेलवे प्लेटफार्म का दृश्य देखा है, मृत मां के कफ़न से बच्चे को भी खेलते देखा है, हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है। लॉक डाउन में गरीब-मजदूरों के पैरों के छाले को देखा है, चार्टर प्लेन से हस्तियों को भी लाते देखा है, हां, हां ! हमने भी सामाजिक न्याय होते देखा है। सामाजिक न्याय के नाम पर चुनाव जीतते देखा है,  जीतने के बाद किसानों, मजदूरों, शोषितों को खून के आंसू रूलाते भी देखा है,  हां, हां ! हमने सामाजिक न्याय होते देखा है।  हमने

हे नारी !

काव्य संख्या-134 27/09/2017 ---------------------- हे नारी!  छोड़ तू अपना  सहज सरल सौम्य रूप  धारण कर तू रणचंडी का रूप  व्यर्थ तू किसी को अपनी व्यथा सुनाती है  व्यर्थ में तू अपना खून जलाती है  रामायण में सीता के चरित्र पर भी अंगुली उठी थी  रो-रो कर बुरा हाल था  पर, एक ने भी नहीं सुनी उसकी पीड़ा  उसे भी अपनी पवित्रता का सबूत  अग्नि में प्रवेश कर देना पड़ा  द्वापर में भी रुक्मिणी के एक पति थे कृष्ण  लेकिन कृष्ण की पत्नी केवल एक रुक्मिणी नहीं थी  समाज में कभी भी नहीं रहा है नारी का सम्मान  हमेशा रही है नारी असमानता की शिकार, इसलिए  हे नारी !  तू मत सुना किसी को अपनी करूण व्यथा  अधिकार मांगने से नहीं मिलता इस जग में  यहां अधिकार छीनना पड़ता है  यहां कदम-कदम पर लड़नी पड़ती है लड़ाई  इज्ज़त शोहरत और सम्मान के लिए, इसलिए  हे नारी!  तू अपनी आँखों में  अश्कों की बजाय रक्त ला शीतल ह्रदय में अग्नि की ज्वाला जला कोई एक आँख दिखाए तू दोनों दिखा तू मत बन बेबस और लाचार  तू मत फैला दूसरों के आगे हाथ  तू खुद को मतकर आत्मसमर्पण  तू खुद का मत बन भोगया  तू अपने स्वाभिमान की रक्षा खुद कर अगर सम्मान से जीना

जिंदगी

जिंदगी 18/07/2017 ========== मैं खुशी की तलाश में निकला था लेकर गम आ गया हूँ चलो, कुछ भी तो मिला दुनिया से, जो था उसके पास, उसने मुझे दिया चलो, उसी गमों के सहारे जी जाए जिंदगी। क्या-क्या सपने नहीं देखें थे मैंने सबको टूटते हुए देख रहा हूँ चलो, अच्छा हुआ !  उससे भी कुछ सिख मिल जाए मुझे। जिंदगी की किताबों में कई पन्ने ऐसे हैं जहाँ, सिर्फ पीड़ा-ही-पीड़ा है चलो, आज उस पन्ने को भी  पलट कर पढ़ ही लिया मैंने। पीड़ा भी जिंदगी जीना सिखाती है अपने और पराएपन अहसास कराती है  चलो, आज उस अहसास को भी महसूस कर लिया मैंने। पीड़ाएँ आती हैं आएं उससे मुझे कोई कुरेद नहीं चलो, ऐ जिंदगी उसे भी खुशी-खुशी अपनाएँ।                                       प्रियदर्शन कुमार

बचपन

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बचपन 18/07/2018 ========== काव्य संख्या-191 ================== बचपन कितना मनमोहक है  ================== देखो बचपन कितना अच्छा है  कितना खुश यह बच्चा है  न पढ़ाई-लिखाई की चिंता है  न मम्मी-पापा के डांट की बिल्कुल निर्भीक  न किसी प्रकार की जिम्मेदारी है  न किसी भी चीज की चिंता  न सामाजिक बंधन है  न किसी प्रकार का विरोध  न दुनिया-दारी की चिंता है  न पारिवारिक माया-मोह  हँसता-खेलता बच्चा है  अपने एक मुस्कान से सबका दिल जीत लेता है  स्वच्छ निर्मल मन बिल्कुल कोरा कागज  छल-कपट के लिए जगह नहीं  न इसे जाति का भान है  न ही किसी मजहब का ज्ञान  ऊंच-नीच मालूम नहीं उसे नहीं मालूम है उसे अमीरी-गरीबी  यह तो केवल बच्चा है  जो केवल वात्सल्य का भूखा है  जहां मिलता है प्यार उसे  उसी के पास चला जाता है  कौन है अपना,  और कौन पराया  नहीं है उसे पहचान  परिवार-समाज सबका चहेता है  सबके यहाँ आता-जाता है  सबका स्नेह पाता है  सच में,  बचपन कितना मनमोहक है।                 प्रियदर्शन कुमार

आह ! दफ्न होते मेरे स्वप्न

आह ! दफ्न होेते मेरे स्वप्न। (17/07/2017) -------------------------------- मैं श्मशान में बैठा, आते-जाते लोगों को देख रहा था उनकी बातों को सुन रहा था उनकी बातों को सुनकर ऐसा लगा, जैसे मानो मैं अपनी उस कल्पना के समाज में जी रहा हूँ जिसकी कामना मैं करता था जिसके लिए मैं निराशा में डूबा हुआ था। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था  जैसे उनके अंदर चेतना का प्रवेश हो गया हो सिर्फ नैतिकता की बातें हो रही थी, क्या लेकर आए हो क्या लेकर जाओगे, आपस में क्या बैर रखना, एक दिन हम सभी को भी इसी जलते हुए लाश की तरह ही, इसी मिट्टी में मिल जाना है, हम क्यों और किसके लिए अपने ईमान को बेचें, आदि-आदि बातें लोग कर रहे थे। लेकिन, जैसे ही संस्कार के बाद नदी में स्नान कर निकलते है मानो उनकी चेतना उनका विवेक उनकी बुद्धि, सारा कुछ उसी स्नान के साथ धूल गया हो फिर, उसी दिन-दुनिया में लौट आते हैं एक बार फिर, मेरे सपनोँ का समाज स्वप्न में ही बना रह जाता है हकीकत का रूप नहीं ले पाता। इसप्रकार, टूटते हुए स्वप्न को देखकर एक बार फिर, मैं निराशा में डूब गया आह ! दफ्न होेते मेरे स्वप्न।               प्रियदर्शन कुमार

मैं असभ्य हूं

मैं असभ्य हूं (16/07/2016) =========== मैं असभ्य हूँ --------------- पुराने जमाने के लोग  बहुत भावुक हुआ करते थे, थोड़ी-सी भी नैतिकता पर  आंच आने से इमोशनल हो जाया करते थे। पर अब जमाना बदल गया, समाज तो वहीं है पर, समाज में रहने वाले लोग बदल गये। अब नैतिकता शब्द बेगाना हो गया। परिवार अब पति-पत्नी-बच्चे तक सीमित हो गया। अपने सुख से सुखी खुशी के मतलब हो गये। सम्वेदना और सहानुभूति शब्द से  हम अपरिचित गये। इसे ही हम अगर सभ्य होना कहते हैं, तो मैं असभ्य कहलाना अधिक पसंद करूंगा।                                       प्रियदर्शन कुमार

मैं जानवर हूं

मैं जानवर हूं (16/07/2017) =========== हे ईश्वर ! अब तो मानव कहलाने में भी शर्म आती है मानव को। मानवता को ही शर्मसार कर दिया है मानव ने। अब तो जानवर भी तंज कसते हैं मानव पर, घृणा की नजरों से देखते हैं मानव को। मानव को देख! जानवर भी आँखें तरेरते हैं, अपने-आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। खुद को मानव की बजाय जानवर ही कहलाना पसंद करते है। वह कहता है कि अच्छा है, मुझे ईश्वर ने बुद्धि नहीं दिया, काश ! ऐसा हो जाता, तो मैं भी, अपनी ही प्रजाति को  काटने को दौड़ता। अगर मेरे अंदर ज्ञान होता, तो समष्टि के बजाय व्यष्टि हो जाता, खुद अपने बारे में ही सोचता, खुद की स्वार्थ-सिद्धी में लगा रहता। मेरे भी आँखों का पानी सुख जाता, मेरे अंदर भी ईर्ष्या-द्वैष का भाव जन्म ले लेता, मैं भी हमेशा दम्भ में चूर रहता। अच्छा है ! मैं जानवर हूँ।           ‌‌प्रियदर्शन कुमार

दर्द-ए-बयां

दर्द-ए-बयां (14/07/2017) --------------------- मैं कैसे करूँ अपने दर्द-ए-बयां , जो आज तक नहीं की। मेरे पास शब्द नहीं हैं , दर्द-ए-बयां करने को। हां ! एक तरीका और है, दर्द-ए-बयां करने का, कि मैं मौन रहूँ ; और मुख से कुछ न बोलूँ ,/ बस, उसे सहता रहूँ। क्योंकि, मौन भी अभिव्यंजना का एक तरीका है। चुपचाप दूसरों के दर्द-ए-दिल का  हाल सुनता रहूँ , और खुद मौन रहूँ। चाहता हूँ , कि दर्द को ही अपना हमसफ़र बना लूँ , और दर्द में ही जीना सिख लूँ ,/ ताकि दर्द कुछ कम हो जाए। सुना है, दर्द से दर्द टकराने पर , दर्द कम हो जाता है। हां ! यही अच्छा होगा , कि दर्द में ही ठहर जाऊँ।            प्रियदर्शन कुमार

मैं लिखता हूं तब

काव्य संख्या-190 ============== मैं लिखता हूँ तब  जब अंदर से रोता हूँ तब (13/07/2018) ============== मैं लिखता हूँ तब  जब अंदर से रोता हूँ तब मैं अंदर से रोता हूँ तब  जब पीड़ा में होता हूँ तब मैं पीड़ा में होता हूँ तब जब बिखरता हूँ तब मैं बिखरता हूँ तब जब अंदर से टूटता हूँ तब मैं अंदर से टूटता हूँ तब जब अपनों को दुखी देखता हूँ तब मैं अपनों को दुखी देखता हूँ तब  जब खुद को अपनों के दुख का कारण मानता हूँ तब मैं खुद को अपनों के दुख का कारण मानता हूँ तब जब मेरे कारण अपनों के दिल पर ठेस लगती है तब मेरे कारण अपनों के दिल पर ठेस लगती है जब मैं पश्चाताप की अग्नि में जलता हूँ तब हां, मैं लिखता हूँ तब  जब अंदर से रोता हूँ तब।            प्रियदर्शन कुमार

आईना है वो

काव्य संख्या-189 =============== आईना है वो  (13/07/2018) =============== अक्सर मुझे चिढ़ाता है वो मेरी चापलूसी नहीं करता है वो सच को सच कहता है वो लोग झुक जाते हैं मेरे आगे मैं झुक जाता हूँ उसके आगे आँख से आँख मिलाकर  मुझसे बातें करता है वो हां, कोई और नहीं  आईना है वो।  मुझे मेरी नजरों में गिराता भी है वो और उठाता भी है वो मेरी नींदो को चुराता है वो चैन की नींद सुलाता भी है वो मुझे बेचैन भी करता है वो  और शांति भी देता है वो मुझे रूलाता भी है वो और हँसाता भी है वो हां, कोई और नहीं  आईना है वो।  मेरे दर्प को तोड़ता भी है वो मुझे रास्ता भी दिखाता है वो मुझे ठोकरें भी देता है वो मुझे सम्भालता भी है वो मुझे प्रेरणा भी देता है वो हां, कोई और नहीं  वह आईना है वो  प्रियदर्शन कुमार

खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं,

काव्य संख्या-188 (11/07/2018) ==================== खामोशियां भी  कुछ  कह  रहीं हैं  गर तुम समझ  सको  तो  समझो।  ==================== खामोशियां भी  कुछ  कह  रहीं हैं  गर तुम समझ  सको  तो  समझो।  सबकुछ लफ्जों में बयाँ नहीं होते हैं  गर इशारों में समझ सको तो समझो।  हर  तरफ  पसरा  हुआ  है  सन्नाटा  गर सन्नाटे को समझ सको तो समझो।  शहरों का मिजाज बदला-बदला सा है  गर  खुद  को  बदल सको  तो  बदलो ।  हवाओं ने भी अपनी दिशा बदल ली है  गर अकेला  आगे बढ़  सको तो बढ़ो ।  हर  तरफ  नफरतों का बोलबाला  है  गर प्यार के फूल खिला सको तो बढ़ो।  हर तरफ खतरा ही खतरा है  गर आगे बढ़ सको तो बढ़ो।              प्रियदर्शन कुमार

विलाप

विलाप (11/07/2017 ========== विलाप ---------------------------------- हे ईश्वर , कब तक नफ़रत की आग में जलती रहेगी यह दुनिया कब तक झुलसते रहेंगे लोग कब तक बेगुनाहों के खून से लाल होती रहेगी यह धरती कब तक छलनी होती रहेगी धरती का सीना कब तक खत्म होगा यह समाज में फैला हुआ अलगावाद-कट्टरपंथवाद सम्प्रदायवाद-जातिवाद कब तक टूटेंगी इनकी कड़ियाँ कब तक आजाद होंगे लोग इन जकड़नों से कब तक लोग हैवानियत का रास्ता छोड़ , इंसानियत को गले लगाएंगे या फिर, यह इनकी नियति ही बनकर रह गई है हे ईश्वर !  अब तुम्हें ही निकालना है दुनिया को इस मकड़जाल से एक बार फिर, तुम्हारा अवतार लेने का समय आ गया है अब तुम्हें ही आजाद करना होगा दुनिया को इस दुष्चक्र से नहीं, तो एक दिन सबको लीन जाएगी यह दोगली राजनीति।                         प्रियदर्शन कुमार

सावन

सावन (10/07/2018) =========== चलो सखी , सावन आ गया सावन की पहली बारिश में हम भींगे और प्रकृति के साथ एकाकार हो जाए नहीं सखी , यह बारिश मेरे तन के ताप को घटाने की बजाय  उसे और बढ़ाएगा ही मेरे प्रियतम की अनुपस्थिति में सावन की पहली बारिश का होना मानो वह मुझे चिढ़ा रहा हो मेरे जख्मों पर मरहम लगाने की मानो वह उसे और कुरेद रहा हो हरी-भरी घास हरे-भरे पेड़-पौधे नाचते हुए मोर कहकहा करते कोयल उफनती हुई नदियाँ  मानो प्रकृति ने सोलह श्रृंगार कर लिया हो औरे मुझे जला रही हो प्रकृति का यह मनोरम दृश्य मुझे पिछले सावन की पहली बारिश की याद दिलाती है जब  मेरा प्रियतम मेरे साथ था  दोनों बारिश में भींगते  अठखेलियाँ करते आह ! वे भी क्या थे।  प्रियदर्शन कुमार

मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां

काव्य संख्या-187 ============ मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां (10/07/2018) ============ मौसम की तरह  बदलते हैं लोग यहां  ऐ साहब ! अगर मैं हँसता हूँ तो  सभी मेरे साथ हँसते हैं  और जब मैं रोता हूँ तो  केवल मैं ही रोता हूँ  साथ छोड़ जाते हैं लोग  हालात से खुद लड़ते हैं  अपने हाल पर जीते हैं  लोग तमाशबीन बन जाते  बेगानों की तरह व्यवहार करते  अपनी निगाहें फेर लेते  शायद यही जिंदगी है  जिंदगी का मतलब यही है  किसे अपना कहे  किसे कहे बेगाना  मतलबी लोग हैं यहां के मतलबों से घिरा यह जमाना है  मतलब से जुड़ा रिश्ता है  मतलब खत्म होने पर  खत्म होते हैं रिश्ते सारे  अजीब जमाना आ गया है  ऐ साहब ! मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां।     प्रियदर्शन कुमार

मैं मानव हूं

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मैं मानव हूं (08/07/2018) =========== काव्य संख्या-186 =========== मैं मानव हूँ  =========== जब मैं कहता हूँ  मैं मानव हूँ  मुझे खुद पर हँसी आती है  खुद को ठगा हुआ भी महसूस करता हूँ  जबकि मेरे अंदर की मानवीयता कबकि मर चुकी है  मैं संवेदनहीन औ' चेतना से शून्य कबका हो चुका हूँ  न स्नेह है और न दूसरों के प्रति सम्मान का भाव  न ममता है और न त्याग है  दूसरों को रोते देखकर भी अपनी निगाहें फेर लेता हूँ  फिर भी कहता हूँ  कि मैं मानव हूँ।  आदमी और जानवर का  फर्क मिट चुका है  वो भी खुद के लिए जीता है  और मैं भी खुद के लिए जीता हूँ  या यूं कहें कि  उससे भी नीचे गिर गया हूँ  उनमें भी एकता है  अपनी जातियों के प्रति  समर्पण की भावना है  सुख हो या दुख हो  साथ-साथ रहते हैं  न छल है न कपट है  फिर भी गर्व से कहता हूँ  कि मैं मानव हूँ।  प्रियदर्शन कुमार

आंचल की छांव

आंचल की छांव (08/07/2017) =========== मंदिर घूमा मस्जिद घूमा और घूमा गिरजा-घर मैं शांति की खोज में घूमा सारा जहां मैं लेकिन कहीं नहीं  मिली शांति मुझे मिली तो मिली शांति मुझे मेरी मां के  आंचल की छाँव में ।       प्रियदर्शन कुमार

सुनो कवि

सुनो कवि 07/07/2017 ========== सुनो कवि ! चाहे तुम जो लिखो लेकिन ऐसा कुछ मत लिखो जिससे लोगों की भावनाएं आहत हों भावनाएं आजकल बहुत ही संवेदनशील हो गई हैं छोटी-छोटी बातों पर ये आहत हो जाती हैं हो सकता है कि तुम भी कभी  भावनाओं को आहत  करने के जुर्म में भावनात्मक रूप से आहत भीड़तंत्र द्वारा बीच सड़क पर  कुचल कर मार दिए जाओगे या फिर भावनाओं के आहत  करने के आरोप जेल जाना पड़ सकता है कोई इसके विरोध में आवाज़ तक नहीं उठाएगा चाहे वह मीडिया हो नेता हो सिविल सोसाइटी हो या फिर सरकार हो सुनो कवि ! मैंने एक बार फिर तुम्हें अगाह कर दिया कि ऐसा कुछ मत लिखो जिससे लोगों की भावनाएं आहत हों।                   प्रियदर्शन कुमार

मेरे देश के लोग

मेरे देश के लोग (06/07/2017) =========== लोगों,  मेरे देश के लोगों कब तक तमाशबीन बने रहोगे कब तक सहते रहोगे अन्याय अन्याय करना जितना बड़ा गुनाह उतना-ही बड़ा गुनाह अन्याय सहना भी है भीड़ का हिस्सा मत बनो आवाज़ उठाओ उस असामाजिक तत्वों के खिलाफ जो समाज में  साम्प्रदायिकता के बीज बो रहे हैं दो समूहों को आपस में लड़वा रहे हैं उस जड़ को काट डालों जहां से यह जन्म लेता है वक्त आ गया है कि अब हम अपनी आवाजें बुलंद करें मत आओ इनके बहकावे में मत आंच आने दो अपने भाईचारे पर अपनी अंतर्आत्मा की आवाज़ सुनों मत सुनों आतताइयों की बातें।                   प्रियदर्शन कुमार

आईना

आईना (05/07/2017) =========== जब भी आईने पर चढ़ें धूल के परत को हटाता हूँ मुझे मेरा वास्तविक चेहरा नज़र आता है हो जाता है मेरा सच्चाई से सामना जिसे मैं झुठला भी नहीं सकता और न ही नजरें चुरा सकता हूँ यह एक तरफ यदि मुझे मेरी शक्ति और मेरे सामर्थ्य से परिचय करवाता है तो दूसरी तरफ यह मुझे मेरी कमजोरियों से भी रूबरू करवाता है यह मेरा मार्गदर्शन भी करता है यह मुझे खुद से  बातें करने के लिए उत्प्रेरित करता है जब भी आईने पर चढ़ें धूल के परत को हटता हूँ मुझे मेरा वास्तविक चेहरा नज़र आता है। प्रियदर्शन कुमार

मां

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मां (04/07/2017) ============= मां ! मैं हर बार तुम्हें  परिभाषित करने की कोशिश करता हूँ हर बार मेरे शब्द कम पर जाते हैं शब्दकोश भी असमर्थ हो जाता है बताओं तुम्हें कैसे परिभाषित करूँ तुम्हारे लिए शब्द कहां से लाउं सारा ब्रह्माण्ड तुम्हारे सामने नतमस्तक हो जाता है सबसे उपर तुम्हीं-तुम हो तुम्हारा न कोई आदि है  और न अंत है सबकुछ तुम्हीं से शुरू होता है और तुम्हीं पर जाकर अंत हो जाता है तुम्हारे बिना सृष्टि की कल्पना अधूरी है तुम्हीं स्रष्टा हो तुम्हीं ममता की देवी हो तुम्हीं त्याग हो तपस्या हो बलिदान हो तुम्हीं मेरी शक्ति हो तुम्हीं  मेरा सामर्थ्य हो तुमसे बाहर न तो कुछ है और न ही हो सकता है।           प्रियदर्शन कुमार

बारिश की बूंदें

बारिश की बूंदें (03/07/2017) =========== बारिश की बूंदें जब पड़ती है धरा पर धरा मानो जैसे फिर से यौवनावस्था में  प्रवेश कर गई हो चारों ओर हरियाली छा जाती है ऐसा लगता जैसे  बादल से दूर होने  के कारण विरह की ताप में जल रही धरा पर जैसे ही बारिश की बूंदे  पड़ती है वैसे ही  उसकी आत्मा को तृप्ति मिल गई हो धरती की इस वेदना को बादल समझता है और  धरती भी जानती है झमाझम बारिश कर उसकी तपिश को बादल ही शांत कर सकता है बादल और धरती के मिलन से मानो ऐसा लगता है जैसे पेड़-पौधे पर्वत झरना उफनती नदियाँ खुशी से झूम रहे हों नाचते हुए मोर कलरव करती पक्षियां दोनों के मिलन से प्रफुल्लित हो  जैसे स्वागत गान गा रहे हों।                प्रियदर्शन कुमार

हां ! मैं दुख में ही स्थिर हो गया हूं

हां ! मैं ही दुख में जाकर स्थिर हो गया हूँ। (02/07/2017) --------------------------------------------------- मैं अक्सर सोचता हूँ व्यथित मन को शांत करने हेतु कुछ ऐसी कविताएँ लिखूँ जिससे मन में शांति हो पता नहीं  जीवटता-जिजीविषा-खुशी-उल्लास जैसे शब्द मेरे शब्दकोश से कहां चले गए और बचे रह गए  संत्रास-कुंठा-अजनबीयत-हताशा जैसे शब्द। जब भी कलम उठाता हूँ लिखने को मेरे जेहन से ऐसे ही शब्द निकलते हैं  जो मेरे चित्त को  शांत करने में असमर्थ हैं। पता नहीं  इसमें किसका दोष है मेरा या फिर समय का जिसके साथ चलने में मैं असमर्थ हो गया हूँ और स्थिर रह गया हूँ अशांति के जाल में हां ! मैं ही स्थिर हो गया हूँ कालचक्र में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता है जो निरंतर चलते रहता है हां ! मैं ही दुख में जाकर स्थिर हो गया हूँ।

कुछ तो बात है

कुछ तो बात है (02/07/2017 ) ===================== हुक्मरानों से कह दो गौ रक्षा के नामपर कत्ल-ए-आम बंद करे क्योंकि इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता में कमी नहीं आनेवाली इसमें और मजबूती ही आएगी हुक्मरानों से कह दो हमारी एकता को  तोड़ने के लिए कोई और तरीका इजाद करें कह दो गांधी और गोडसे को साथ-साथ पूजने वाले से हम चीज ही कुछ ऐसी हैं कि हमारी हस्ती मिट नहीं सकती हमारी हस्ती मिटाते-मिटाते अंग्रेज-फ्रांसीसी-पुर्तगाली-डच चले गए फिर इनकी बिसात क्या कह दो इन्हें वक्त रहते सुधर जाए नहीं तो एक क्रांति की लहर उठेगी जो इस प्रजाति का समूल नष्ट कर देगी।    प्रियदर्शन कुमार

हालात

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हालात(01/07/2017) =============== एक लड़का  जो रोज की तरह सुबह उठता है अपना नित्य कर्म करता है उसकी मां उसके लिए खाना बनाती है लड़का विद्यालय जाने के लिए तैयार हो जाता है मां उसे खाना खिलाती है और हाफटाइम में लंच करने के लिए भी  उसके थैले में लंचबॉक्स रख देती है लड़का विद्यालय जाते समय  मां को प्रणाम करता है मां उसके मुख चुमती है और उसके सर पर हाथ फेरती उसके होंठों पर मुस्कान है और अंदर डरी हुई है लड़का चला जाता है मां बेटे के आने इंतजार करने लगती है उसका मन बेचैन होने लगता है रोती है चुप होती है और खुद को समझाती है कोई नहीं , सब कुछ अच्छा होगा मेरा बेटा विद्यालय से छूटते ही मेरे पास आ जाएगा। जैसे ही अपने बच्चे को आते देखती है मां मानो उसे एक नई जिंदगी मिल गई हो उसके आंखों से खुशी के आंसू निकलने लगते हैं मां बेटे को गले लगाती  फिर उसके मुख को चुमने लगती है अपने आंचल में उसे छुपा लेती है मानो; जैसे मां से उसके बच्चे को  कोई अलग कर रहा हो हर बार उसे लगता है मैं अपने बच्चे अंतिम बार मिल रही हूँ बेटा पूछता है अपनी मां से मां ! तुम रो क्यों रही हो  मैं हमेशा की तरह समय पर विद्यालय से आ ही तो ज

लोकतंत्र का चीरहरण

लोकतंत्र का चीरहरण (30/06/2017) ========================= लोकतंत्र का चीर-हरन हो रहा , मुकदर्शक बन सब देख रहा ! मुख से विरोध का स्वर नहीं निकलता, जैसे सबको सांप सूँघ गया ! अरे अब तो अपनी चुप्पी तोड़ो , लोकतंत्र की मंदिर से  इन दलालों को बाहर निकालो ! संसद को इसने अखाड़ा बना दिया , इसने अपनी जिम्मेदारी से मुह मोड़ लिया ! जनता को क्या-क्या सपने दिखाया था, उन सपनों को चकनाचूर कर दिया ! समावेशी विकास का नारा देकर  खुद कोरपोरेट घरानों का रखैल बन गया!                                 प्रियदर्शन कुमार

मैं स्वप्न में ही जीना चाहता हूं (24/06/2017)

मैं स्वप्न में ही जीना चाहता हूँ ------------------------------------- अब स्वपन में ही  रहने की इच्छा है मुझे वास्तविक दुनिया की भयावह तस्वीर से  डर लगता है मुझे। भौतिकता की चाह ने खत्म कर दिया सारे संबंधों को बना दिया लोगों को व्यक्तिवादी इसलिए स्वपन में ही रहने की इच्छा है मुझे। कांप जाते हैं रुह मेरे दुनिया की आवोहवा देखकर मिलती नहीं शांति मुझे हर वक्त संत्रास-कुंठा में जीता हूँ मैं। स्वप्न में ही मिलते हैं मुझे मेरे कल्पना की दुनिया जहाँ न घृणा-ईष्या-द्वैष  और न स्वार्थीपन है जहां सिर्फ प्रेम-स्नेह-अपनापन और सद्भावना है। इसलिए स्वपन में ही रहने की इच्छा है मुझे मैं स्वप्न में ही जीना चाहता हूँ। प्रियदर्शन कुमार

हां, उन्होंने जीना सीख लिया है

चाह विश्वगुरु बनने की

काव्य संख्या-228 =============== चाह विश्वगुरु बनने की =============== चाहत विश्वगुरु बनने की, दिमाग नहीं एक पैसे की। बेवकूफों का जमावड़ा है, बिना सोचे काम करता है। अंजाम की परवाह नहीं उन्हें, खामियाजा देश भुगतता है। अब वो भी आंखें दिखाने लगे, जो कभी हमें अपना मानते थे। एक-एक कर छूटते चले जा रहे हैं, हमारे संबंध उनसे टूटते जा रहें हैं। अब भी समय है खुद में परिवर्तन लाओ, अपनों को अपने साथ लाने का काम करो। न तुम्हें अपने पड़ोसियों से बनती है, न देश की अपनी जनता से बनती है। खुद पर इतना गुरुर करना भी ठीक नहीं, क्योंकि तुम्हारी हैसियत इस लायक नहीं। बराबरी का दर्जा दो अपने पड़ोसियों को, डिक्टेरशिप छोड़ सबको साथ लेकर चलो। तभी  बात दुनिया  सुनेगी  तुम्हारी, सारी दुनिया इज्जत करेगी तुम्हारी।                          प्रियदर्शन कुमार

हे ईश्वर !

हे ईश्वर (30/05/2018) ================= हे इश्वर ! तुमने कैसा जहां बनाया था यह कैसा बन गया है आदमी, आदमी से जलता है इसने पशुता को भी पीछे छोड़ दिया है इनके आंखों में प्यार की बजाय खून दिखाई देता है हर तरफ मार-काट दंग-फंसाद का बोलवाला हो गया है मानव के अंदर दानवता का प्रवेश हो गया है मानव समष्टि को छोड़ व्यष्टि को अपना लिया है घृणा-द्वेष-ईर्ष्या करना इनके जीवन का हिस्सा बन गया है चारोँ ओर नफ़रत-ही-नफ़रत फैला है कहीं जाति के नामपर तो कहीं धर्म के नामपर ऐसा लगता है जैसे अधर्म का राज हो गया हो धर्म को किसी ने कैद कर लिया हो।

फिर एक नई सुबह

काव्य संख्या-177 08/05/2018 ---------------------- एक नई सुबह ---------------------- एक नई सुबह / एक नयी उमंग नये उम्मीदों के संग / बढ़ चले हैं हम / बिना अंजाम की परवाह किए / हर दिन एक नई चुनौतियों के साथ / हर दिन एक नया सबक / एक जिद एक जुनून / एक नई ऊर्जा के साथ आँखों में एक नये सपने लिए / उसके पीछे भागते / उठते गिरते खुद को सम्भालते / थकते रूकते / और फिर आगे बढ़ चलते / दुनिया की रेलमपेल में / अपनी जगह तलाशने / रोज निकल पड़ते हैं / हां साहब / ये जिंदगी है / ये कभी ठहरती नहीं / इसकी गति बहुत तीव्र है / इसी के साथ चलने की कोशिश / मंजिल तक पहुँचने की कोशिश / लगा हूँ मैं / लगा है सारा जहां / ठहरना मौत है / गति ही जीवन है / हां एक नई सुबह / एक नयी उमंग नये उम्मीदों के संग।                          प्रियदर्शन कुमार

ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं

काव्य संख्या-175 --------------------------------------- ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं (28/04/2018) --------------------------------------- ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने तुमपे उंगलियां उठाई उसे मंत्री बना दिया / जिसने आँख खोली उसे सदा के लिए सुला दिया / जिसने तुम्हारे चौखटे पर मत्था टेके उसे लालकिला दे दिया / जिसने बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया, सजा देने की बजाय हिन्दू-मुस्लिम में उलझन उलझा दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो भी माँगा उसे कुछ-न-कुछ जरूर दे दिया / किसी को गाय का ठेका दे दिया / किसी को श्रीराम की रक्षा करने का ठेका दे दिया / किसी को घर वापसी करने का ठेका दे दिया / लेकिन किसी को निराश नहीं किया / खाली हाथ नहीं लौटने दिया / जिसकी आवाज तुम तक नहीं पहुंच पायी / उसे मन की बात दे दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो भी माँगा दे दिया / माल्या ने लंदन मांगा तो लंदन दे दिया / नीरव-चौकसी ने विदेश में रहने की ईच्छा जाहिर की / तो उसे तथास्तु का आशिर्वाद दे दिया / जब सब की ईच्छाएं पूरी हो गई तो / काशी में मंदिर तुड़व

जनवादी

जनवादी (25/04/2017) ================ मैं हूँ जनवादी जन-मन में है मेरी आस्था। जब भी मैं देखता हूँ भूख से बिलखते बालक को द्रवित हो उठती है मेरी अंतर्आत्मा नहीं समर्थक मैं किसी पार्टी विशेष का समर्थक हूँ मैं हर उसका जो गरीबोँ की थाली भोजन परोसता नहीं परोसता केवल विचार। नहीं चहता मैं केवल योजनायें मैं चाहता हूँ अंतिम व्यक्ति के होंठों पर मुस्कान नहीं चाहता मैं अट्टालिका बुल्लेट ट्रेन मैं केवल चाहता हूँ गरीबों को मिले छत। मत भरमाओं जनता को जाति-धरम-मजहब के नाम पर मत छिनों उनका अमन-चैन तुम दे दो केवल उसका हक। अगर नहीं तुम देतें उसका हक एक बार फिर उठगी क्रान्ति की लहर जो तुम्हें कर देगा समूल नष्ट धरे-के-धरे रह जाएगें तुम्हारे शासन-तंत्र मत लो तुम गरीबों के धैर्य की परीक्षा तुम लौटा दो इसका हक मैं हूँ जनवादी जन-मन में है मेरी आस्था।               प्रियदर्शन कुमार

नेता

काव्य संख्या-227 ============= नेता ============= बता, तुम्हारी मौत पर मैं क्या करूं ताली बजाऊं, थाली बजाऊं या फिर दीप जलाऊं विलाप करूं या फिर संवेदना के दो शब्द कहूं मरने वालों की सूची में न तो तुम प्रथम हो और न आखिरी। नहीं, ये मुझसे नहीं होगा, समाज में तुम्हारी हैसियत ही क्या है? न तो तुम राजनीतिक घराने से हो न ही पूंजीपतियों के घराने से, न तो तुमने अपने स्वाभिमान बेचे और न ही अपनी जमीर का सौदा ही किया फिर बता, मैं तुम्हारे लिए क्या करूं। तुम्हारे यहां आऊं भी तो कैसे तुम्हारा घर बदबूदार इलाक़े में जो है मैं आ भी जाता नाक पर रूमाल रखकर लेकिन अभी चुनाव नहीं है अभी काम भी तो बहुत है कोरोना से जो लड़ना है नहीं-नहीं, तुम्हारे लिए नहीं अपनों के लिए। भूख से मरो पुलिस के डंडों से मरो करोना से नहीं मरना है एक दम से लॉक डाउन में रहना है चाहे इसकी कीमत जो भी चुकाओ मुझे डब्ल्यू एच ओ को आंकड़े जो देना है देश की ईज्जत का जो सवाल है देश की बदनामी हो सकती है विश्व गुरु भी तो बनना है चलो, कोई नहीं, मैं अपने मन की बात सुनाता हूं अव्यवस्था के लिए माफ़ी मांगता हूं

एक ईमानदार आदमी

काव्य संख्या-173 -------------------------- एक ईमानदार आदमी -------------------------- जन्म से वह नहीं था झूठा वह नहीं था बेईमान और फरेबी गरीबी की चोट खाता रहा है वह हरदम हर मुश्किलों का सामना करता रहा है वह हरदम अपनी ज़मीर बचाए रखने की कोशिश में न जाने क्या-क्या नहीं किया वह अभाव ने उसके जीवन के समीकरण बदल दिए उसमें बचपन से पहले जवानी आ गई और जवानी से पहले बुढ़ापा उसके चेहरे की झुर्रियां  दे रही थी उसकी गवाही थक-हार गया वह खत्म हो गई ऊर्जा दुनिया से लड़ने की उसकी आज कफन ओढ़ सो गया वह लेकिन कभी नहीं झुका वह हमारे सामने प्रश्न छोड़ गया वह आज उसके नाम के कसीदे पढ़ी जा रही है दुनिया में जब तलक था वह जिंदा मर-मर के जी रहा था तब सो रही थी दुनिया हां, वह कोई और नहीं वह था एक ईमानदार आदमी।                    प्रियदर्शन कुमार

आधुनिकता

आधुनिकता (07/04/2017) ================== आधुनिकता के नाम पर देश में नंगा नाच हो रहा। हमारी सभ्यता और संस्कृति का जो निरंतर नाश कर रहा। पश्चिम के प्रभाव ने हमें अपने आगोश में ले लिया। अपने सारे सद्गुणों को छोड़कर हमने अवगुणों को अपना लिया। हमारा वेशभूषा सब बदल गया और हम इंगलिश्तानी बन गए। हम अपने तन ढकने की बजाय हम जिस्म दिखाने में लग गए। ऐसा लग रहा है जैसे फिर हम आदिकाल में पहुंच गए। इज्ज़त-शोहरत हासिल करने के चक्कर में हम अपनी मान-मर्यादाओं को भूल गए। हम कहां थे कहां पहुंच गए इसका हमें पता भी न चला। कब हमारी संवेदना मर गई इसका हमें भान भी न रहा। मूल्य-मर्यादा-नैतिकता जैसे शब्दों से हम अपरिचित हो गए। ऐसे नक्काल कसे कि हम नक्काली बन गए।         प्रियदर्शन कुमार

तुम

काव्य संख्या-226 ============= तुम ============= बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हो तुम। जमीं की नहीं, आसमां के लगते हो तुम। तुम्हें समझ नहीं दौर-ए-दुनिया की, नासमझ वाली हरकतें हमेशा करते हो‌ तुम। कोई भी निर्णय लेने से पूर्व, अंजाम की परवाह नहीं करते हो तुम। आज तक जितने भी निर्णय लिए तुमने, कितने सफल हुए बताते नहीं हो तुम। कितने ही जानें जाती हैं तुम्हारी एक गलती से, उन बेकसूरों के बारे में नहीं सोचते हो तुम।                                           प्रियदर्शन कुमार

चौथा स्तंभ

चौथा स्तंभ (03/04/2017) ================== ओ लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मत गिराओ अपने आचरण। मत घूमों सत्ता के गलियारों में मत गुणगान करो नेताओं का। चंद लाभ प्राप्त करने की खातिर मत गिरवी रखों अपने स्वाभिमान का। तुम अंतिम प्रहरी हो इस लोकतंत्र का तुम भी दागी बन जाओगे तो कौन रक्षा करेगा इस लोकतंत्र का। तुम्हारे पर भरोसा है इस लोक का मत तोड़ों इनकी उम्मीदों को तुम्हीं उम्मीद हो इस जन-जीवन का। तुम्हीं मध्यस्थ हो सत्ता-जनता का तुम्हें ही पहुँचाना है इनकी आवाजों को लोकतंत्र के मंदिर तक तुम्हीं आवाज़ हो किसानों-मजदूरों का। तुम्हीं मुक्ति दिला सकते हो जनता को सत्ता के अत्याचारों से। तुम्हीं लोकतंत्र का दर्पन हो तुम मत भूलों अपनी गरिमा को।                      प्रियदर्शन कुमार

मत बांधो मुझे

मत बांधो मुझे (31/03/2017) =================== मत बांधों मुझे माया-मोह के बंधन में। मैं आजाद होकर उड़ना चाहता हूँ उनमुक्त गगन में। चाहता हूँ छू लेना उस चरम बिंदु को। चाहता हूँ देख लेना अपने सामर्थ्य और अपनी सीमाओं को। चाहता हूँ ऐसा कुछ कर जाना कि दुनिया मुझे मेरे नाम से जाने मेरे मरने के बाद भी मुझे सदा याद रखें। बस यहीं एक अभिलाषा है मेरी और नहीं चाहता मैं कुछ भी।                 प्रियदर्शन कुमार

जिंदगी इसी का नाम है

जिंदगी इसी का नाम है  (30/03/2017) ========================= मैं हैरान हूँ यह सोचकर कि मैं कहां जा रहा हूँ नियति मुझे ले जा रही है या मैं नियति के कारण जा रहा हूँ इसी के मंथन में रहता हूँ पहुंच नहीं पाता हूँ मैं निष्कर्ष तक रोज नये-नये सवाल उभर कर आते हैं मेरे सामने मैं इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने में लगा रहता हूँ यह गुत्थी है कि सुलझने की बजाय और उलझती ही चली जाती है गांठ-पर-गांठ पड़ता ही जा रहा है सोचता हूँ कुछ, कर जाता हूँ कुछ और हो जाता है कुछ जिंदगी को समझना बहुत-ही जटिल है जिंदगी को अपनी मर्जी से जीना अपनी शर्तों पर जीना बहुत-ही मुश्किल है हर पग पर समझौता करना पड़ता है। सोचता हूँ कि क्या जिंदगी इसी का नाम तो नहीं।                         प्रियदर्शन कुमार

दिल और दिमाग

दिल और दिमाग (,29/03/2017) ------------------------------------------ दिल और दिमाग के बीच निरंतर जंग चलता रहता है जो हमारी निर्णयन क्षमता को प्रभावित करता है। कभी दिल दिमाग पर भारी तो कभी दिमाग दिल पर भारी पड़ता है। जबकि वास्तविकता है कि जिंदगी जीने के लिए दोनों चीजों की आवश्यकता है दिल और दिमाग के बीच सहसंबंध होना चाहिए न तो दिल दिमाग का स्थान ले सकता है और दिमाग दिल का । लोग इन्हीं दोनों के पेशोपेश में फंसा पड़ा रहता है कि कहां दिल से काम लिया जाए कहां दिमाग से काम लिया जाए। किसी भी संबंधों की नैरंतर्य को बनाएं रखने के लिए इन दोनों के बीच सामंजस्य की आवश्यकता होती है। इन दोनों के बीच तारम्यता का बिगड़ना किसी भी काम के लिए या फिर संबंधों के बीच तनाव के लिए उत्तरदायी होता है।               प्रियदर्शन कुमार

पीड़ित जनता की आवाज़

पीड़ित जनता की आवाज़(29/03/2018) ----------------------------------------------------- हे राजन् ! तुम्हें मैनें अपना राजा चुना, तुमसे मुझे बड़ी अपेक्षाएं थी। मैनें बड़े-बड़े सपने देखें थे, कि तुम उन सपनों को पूरा करोगे। तुम मेरे दुखों को हरोगे, तुम मेरे आंखों के आंसूओं को पोछोगे। मेरे होठों पर फिर से हंसी लाओगे। भूखें को भोजन, प्यासे को पानी, नंगे के तन पर कपड़ा, बेघर को घर दोगे। समाज में शान्ति और सौहार्द्र की स्थापना करोगे। लोकतंत्र से उठ चुके मेरे विश्वास को फिर से बहाल करोगे। लेकिन, ये क्या किया तुमनें? मेरी की भावनाओं के साथ खेला, मेरे सपनों का चकनाचूर कर दिया, मुझे सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया। मैंने हक माँगा तो तुमने गोली चलवाया रोजगार माँगा तो साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिया मैं पूछता हूँ तुमसे, आखिर मेरा अपराध क्या था, किसकी सजा मुझे मिली है? बस, यहीँ न कि तुमसे अपेक्षाएं रखी थी मैनें, कुछ सपनें देखें थे मैनें, उसकी इतनी बड़ी सजा, हे राजन् ! धिक्कार है धिक्कार है तुम पर।                    प्रियदर्शन कुमार

डोमिनोज़

डोमिनोज़ (26/03/2017) ================= कल मैं डोमिनोज में गया हलांकि मैं खुद नहीं गया ले जाया गया, अब तक सिर्फ डोमिनोज का नाम ही सुना था। ऐसा लगा, जैसे मैं भारत से इंडिया में पहुंच गया। वहां की बिल्कुल अलग संस्कृति थी एक चकाचौंध वाली दुनिया एक अंजान-सा चेहरा लिए मैं इधर-उधर देखता रहा एक आजीब-सी कोलाहल थी हलांकि सभ्य जन इसे 'इन्ज्वाय' का नाम देते हैं। मैं उस संस्कृति को देखकर स्तब्ध रह गया। बस, यहीं सोचने लगा कि ये कैसा समाज है ये कैसी दुनिया है यहां के रहनेवाले लोग कैसे हैं जहां एक तरफ गरीबों-मजलूमों का जोंक की तरह खून चूसते हैं और अपने घर भरते हैं होटलों में अय्याशी करते हैं वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो भूखे पेट सोने को मजबूर हैं फूट-पाथ पर सोते हैं बच्चे सड़क के बगल में होटलों द्वारा फेंक दिए गए जूठन को खाने को मजबूर हैं ये कैसी विषमता व्याप्त है।               प्रियदर्शन कुमार

जा कोरोना जा

काव्य संख्या-225 =========== जा कोरोना जा =========== जा कोरोना जा निर्धन के आंखों में तू मत आंसू ला जा कोरोना जा। गरीबी रूला रही है अपनों की जुदाई रूला रही है अब तू भी मत रूला जा कोरोना जा। सब कुछ छिन गया है अब केवल सांस बचा है उसे भी मत छिन तू जा कोरोना जा। भूख से बच्चे बिलख रहे हैं दो जून की रोटी खाने को तरश रहे हैं कुछ खाने को पास नहीं है चूल्हे पर मकड़ी का जाला है छिन गया सुख चैन हमारा है अब तू हमें और न तड़पा जा कोरोना जा। रोजगार छिन गया जो जीने सहारा था दो पैसे बचा रखे थे सारा खत्म हो गया तेरे एक आने से खाने के लाले पड़ गए अब और न ले तू मेरी अग्नि परीक्षा जा कोरोना जा। कभी सुरज की तपिश कभी बाढ़ का प्रकोप कभी भूकंप का सामना अब तुम्हारा प्रकोप सहन नहीं होता जा कोरोना जा। उपर से फरमान आया है घर से बाहर नहीं निकलना है अब तेरे ही हाथों में जीवन हमारा है अब तू ही हमें बचा सकता है जा कोरोना जा। प्रियदर्शन कुमार