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झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो

झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो अच्छा लगता है सुनने में मुझे। अब तो आदत-सी पड़ गई है। झूठ के साथ जीना सीख लिया है मैंने तुम बोलो कि सत्ता में आने के बाद सबको रोजगार दूँगा तुम बोलो कि सबको रहने के लिए छत उपलब्ध करवाऊँगा तुम बोलो कि किसी को भूखा नहीं सोने दूँगा तुम बोलो कि किसी बच्चे की सांसे नहीं छीनी जाएगी तुम बोलो कि किसी के आँखों में आँसू नहीं होने दूँगा तुम बोलो कि किसानों को आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ेगी तुम बोलो कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि जातिवाद और साम्प्रदायिकता से मुक्त भारत का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि समता आधारित समाज का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि सामाजिक आर्थिक राजनीतिक न्याय उपलब्ध करवाऊँगा झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो अच्छा लगता है सुनने में मुझे अब तो आदत-सी पड़ गई है झूठ के साथ जीना सीख लिया है मैंने। प्रियदर्शन कुमार

सच में वो आदमी नहीं, है मौन प्रतिमा-सा

सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा जिनकी आँखे तो खुली है पर, देख पाने में असमर्थ है जिनके पास कान तो है पर, सुनने में असमर्थ है जिनके पास मुख तो है पर, बोलने में असमर्थ है सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। जल रहा है हमारा देश जाति-धर्म की आग में उड़ाई जा रही हैं सरेआम कानून की धज्जियां फिर भी, वो मौन है सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। वर्तमान में जीना छोड़ जा रहे हैं इंसान अतीत में अपने अस्तित्व की खोज में स्थापित करना चाहते हैं इंसान एक बार फिर अपने वर्चस्व को चुकाने को आतुर हैं इंसान इसकी कोई भी कीमत हो रहे हैं इंसान एक-दूसरे के खून के प्यासे शायद उन्हें खबर नहीं सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। शायद उन्हें इस आग से पहुंच रहा है कोई राजनीतिक फायदे शायद वो चाहते हैं कि उलझे रहे लोग हमेशा वर्चस्वता के उलझन में कोई उनसे ये न पूछे कि तुमने जनता के लिए काम क्या किया है? सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा। बढ़ रही है समाज में गरीबी-भूखमरी बेगारी-बेरोजगारी मजबूर हैं युवा गलत रास्ते अपनाने को जिसकी उन्हे

वो माँ है

रिस-रिसकर खत्म हो जाती है उनकी जिंदगी न जाने किस बात की सजा मिलती है उन्हें पूरी जिंदगी खत्म हो जाती है उनकी जिंदगी उन्हें सजने-संवारने में और सुंदर बनाने में अपनी पूरी खुशियाँ लूटा देते हैं वो उनकी एक खुशी के लिए मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा हर जगह मत्था टेकते हैं वो हर जगह मन्नतें मांगते हैं वो उनके खुशी के लिए उनकी सुख-समृद्धि के लिए खींच लेते हैं वो उनके सारे दुखों को अपने ह्रदय में सींच देते हैं वो उनके ह्रदय को खुशियों से खुद भूखी रह जाती हैं उन्हें खिलाकर हमेशा राह तकती उनके आने की उनके माथे को चूमने की उनसे दो बातें करने की बदले में मिलती है उन्हें " सिसकियाँ " उन्हें आँखों में " आँसू " सुनने पड़ते है उन्हें " ताने " खाने के पड़ते हैं उन्हें " लाले " खोजते हैं वो रहने का " आसरा " किया जाता है उनके साथ व्यवहार " अछूतों " के जैसा हां ! वो कोई और नहीं वो माँ है वो माँ है। प्रियदर्शन कुमार

ओ मजदूर ओ मजदूर

ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत बड़ी-बड़ी अट्टलिकाएं बनी परी है तुम्हारे मेहनत का ही नतीजा है तुम्हारे कारण ही वे ऐशो-आराम की जिंदगी जीते हैं उल्टे तुम्हारा ही खून चूसा जाता है तुम्हें ही शूली पर चढ़ाया जाता है ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति का दूत क्यों नहीं तुम एक हो जाते क्यों नहीं आतताइयों के खिलाफ आवाज उठाते क्यों नहीं अपने हक के लिए आगे आते क्यों नहीं देश में क्रांति की लहर जगाते ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत कब तक तुम यूं ही चुपचाप नियति के भरोसे बैठे रहोगे कब तक तुम यूं ही जोकटियों से अपना खून चुसवाते रहोगे कब तक तुम यूं ही लुटेरों के हाथों खुद को लूटवाते रहोगे कब तक तुम यूं ही इनलोगों के हाथों का खिलौना बने रहोगे ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत तुम्हीं ने दुनिया को क्रांति का पाठ पढ़ाया तुम्हीं ने दुनिया में क्रांति का बिगुल बजाया तुम्हीं ने कितने ही साम्राज्य का तख्ता पलट किया तुम्हीं ने इनलोगों को घुटने टेकने को मजबूर किया ओ मजदूर ओ मजदूर तुम्हीं हो क्रांति के दूत तुम अपने इतिहास को मत भूलो तुम अपने अतीत से

माँ-बाप

माँ-बाप के अहमियत का पता बच्चों को माँ-बाप के गुजर जाने के बाद चलता है। माँ-बाप जबतक आँखों के सामने होते हैं माँ-बाप की तबतक अहमियत नहीं होती। माँ-बाप की भूमिका में आते हैं जब बच्चे माँ-बाप के हर एक शब्द याद आते हैं उन्हें। माँ-बाप को काश, उनके रहते समझ पाते वे माँ-बाप को दिए  गए  पीड़ा से बच पाते वे। माँ-बाप की बात को अगर जहन में रख लेते माँ-बाप की कमी कभी खलती नहीं उन्हें। माँ-बाप    कभी   भी    मरते    नहीं      हैं माँ-बाप हमसाया बनके रहते बच्चों के साथ। माँ-बाप अपनी सारी खुशियाँ लूटा देते बच्चों पे माँ-बाप खींच लेते हैं सारे गम अपने बच्चों के। माँ-बाप के लिए सबसे बड़े दौलत होते हैं बच्चे माँ-बाप  को  फिर  भी  क्यूँ  रुलाते  हैं   बच्चे

हिन्दी

बदल रही है देश की आबोहवा, अंग्रेजीदां लोगों से, सिमट रही है हिन्दी, अंग्रेजीदां लोगों से, हम खो रहे हैं अपनी पहचान, अंग्रेजीदां लोगों के कारण से, अपने ही देश में लड़ रही है हिन्दी, अपने अस्तित्व बचाने को, मुट्ठी भर आए थे अंग्रेजीदां , अपने में समेट ले लिया पूरे भारत को, कर दिया भारत का विभाजन अंग्रेजीदां ने, भारत और इंडिया में, कर रहे हैं शासन, अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों पर, किया है हम पर कुठाराघात, अंग्रेजीदां लोगों ने, मारे-मारे फिर रहे हैं हम, अपनी पहचान को बचाने को, लड़ रहे हैं हम,  हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने को।                   प्रियदर्शन कुमार

ऐ समय फिर एक बार लौट आ

ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि अपनी गलतियों को सुधार सकूँ / अपने गलत निर्णय पर पुनर्विचार कर सकूँ / एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / अतीत का मूल्यांकन वर्तमान में करवाने की बजाय / एक फिर मुझे अतीत में ले चल / पश्चाताप के बोध से मुक्त मुझे कर / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / मैं लौट जाना चाहता हूँ / एक बार फिर से अतीत में / ताकि सोई हुई चेतना को जगा सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि खोई हुई चीजों पा सकूँ / उसके महत्व को जान सकूँ / उसे उचित स्थान दे सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि बिखरी हुई ऊर्जा को समेट सकूँ / गतिरोध को तोड़ सकूँ / लक्ष्य की ओर बढ़ सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / ताकि टूटे हुए रिश्ते को कायम कर सकूँ / सबको साथ लेकर चल सकूँ / एक बेहतर इंसान बन सकूँ / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ / घुमा तू घड़ी की सुइयों को विपरीत दिशा में / मिला तू, उनसे जो / दुनिया की आपाधापी में कहीं पीछे छूट गए हैं / ऐ समय ! फिर एक बार लौट आ........।                  प्रियदर्शन कुमार

कोशिशें

सागर तट पर खड़ा हो देख रहा मैं आती-जाती लहरों को बार-बार चट्टानों से टकराती लहरों को लहरों की जीवटता और जिजीविषा को उसके इस समर्पण को शायद वह मुझसे कुछ कहना चाहती है कहकर फिर चली जाती है शायद वह मुझे जीवन का उद्देश्य समझाना चाहती है मेरे गिरते मनोबल में फिर से उर्जा भरना चाहती है जय-पराजय से बाहर निकालकर कर्म करने की सलाह देती है मेरे जीवन को अर्थ देना चाहती है शायद इसलिए वह बार-बार आती है बार-बार समझाने की कोशिश करती है अपना उदाहरण मुझे देती है शायद मेरी सोयी हुई चेतना को जगाने की कोशिश करती है और आकर फिर चली जाती है पहर-कई-पहर तक टकटकी लगाए उसे देखता रहा मैं शायद उसकी भाषा को समझ पाता मैं शायद उससे जिंदगी को जीना सीख पाता मैं। प्रियदर्शन कुमार

प्रेम

सुरज में तपते देखकर / धरा पर प्यार आया बादल को / आ गया आँखों में आँसू / बस क्या था / बादल ने घेर लिया ज्वाला को / अपने आँसूओं से उसने/ ताप से मुक्त किया धरा को / बादल का समर्पण देखकर / भावुक हो गई धरा बेचारी / धरा के आँखों में खुशी के आँसू / और चेहरे पर मुस्कान की छटा / इन दोनों के निश्छल प्रेम से / बेचारा सुरज भी शर्मा गया / इस विहंगम दृश्य को देखकर / पेड़-पौधे-फूल-पत्तियाँ / नदी-झरना-पहाड़-पर्वत / झूम उठी सारी प्रकृति।         प्रियदर्शन कुमार

एक इमानदार आदमी

जन्म से वह नहीं था झूठा वह नहीं था बेईमान और फरेबी गरीबी की चोट खाता रहा है वह हरदम हर मुश्किलों का सामना करता रहा है वह हरदम अपनी ज़मीर बचाए रखने की कोशिश में न जाने क्या-क्या नहीं किया वह अभाव ने उसके जीवन के समीकरण बदल दिए उसमें बचपन से पहले जवानी आ गई और जवानी से पहले बुढ़ापा उसके चेहरे की झुर्रियां  दे रही थी उसकी गवाही थक-हार गया वह खत्म हो गई ऊर्जा दुनिया से लड़ने की उसकी आज कफन ओढ़ सो गया वह लेकिन कभी नहीं झुका वह हमारे सामने प्रश्न छोड़ गया वह आज उसके नाम के कसीदे पढ़ी जा रही है दुनिया में जब तलक था वह जिंदा मर-मर के जी रहा था तब सो रही थी दुनिया हां, वह कोई और नहीं वह था एक ईमानदार आदमी।                 प्रियदर्शन कुमार

ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं

ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने तुमपे उंगलियां उठाई उसे मंत्री बना दिया / जिसने आँख खोली उसे सदा के लिए सुला दिया / जिसने तुम्हारे चौखटे पर मत्था टेके उसे लालकिला दे दिया / जिसने बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया, सजा देने की बजाय हिन्दू-मुस्लिम में उलझन उलझा दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो भी माँगा उसे कुछ-न-कुछ जरूर दे दिया / किसी को गाय का ठेका दे दिया / किसी को श्रीराम की रक्षा करने का ठेका दे दिया / किसी को घर वापसी करने का ठेका दे दिया / लेकिन किसी को निराश नहीं किया / खाली हाथ नहीं लौटने दिया / जिसकी आवाज तुम तक नहीं पहुंच पायी / उसे मन की बात दे दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो भी माँगा दे दिया / माल्या ने लंदन मांगा तो लंदन दे दिया / नीरव-चौकसी ने विदेश में रहने की ईच्छा जाहिर की / तो उसे तथास्तु का आशिर्वाद दे दिया / जब सब की ईच्छाएं पूरी हो गई तो / काशी में मंदिर तुड़वाना आरंभ कर दिया / ऐ सियासत तुम्हारे खेल निराले हैं / जिसने जो वरदान माँगा / उसे स्वीकार कर लिया।          प्रियदर्शन कुमार

एक नयी सुबह

आज फिर एक नई सुबह / एक नयी उमंग / नये उम्मीदों के संग / बढ़ चले हैं हम / बिना अंजाम की परवाह किए / आँखों में एक नये सपने लिए / उसके पीछे भागते / उठते गिरते खुद को सम्भालते / थकते-रूकते / और फिर से आगे बढ़ चलते / हां साहब ! ये जिंदगी है / ये कभी ठहरती नहीं है / इसकी गति बहुत तीव्र होती है / इसी के साथ चलने की कोशिश / मंजिल तक पहुँचने की कोशिश में / लगा हूँ मैं / लगा है सारा जहां / हां, हर एक नई सुबह / एक नयी उमंग / नये उम्मीदों के संग / बढ़ चले हैं हम। प्रियदर्शन कुमार

मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां

मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां ऐ साहब ! अगर मैं हँसता हूँ तो सभी मेरे साथ हँसते हैं और जब मैं रोता हूँ तो केवल मैं ही रोता हूँ साथ छोड़ जाते हैं लोग हालात से खुद लड़ते हैं अपने हाल पर जीते हैं लोग तमाशबीन बन जाते बेगानों की व्यवहार करते अपनी निगाहें फेर लेते शायद यही जिंदगी है जिंदगी का मतलब यही है किसे अपना कहे किसे कहे बेगाना मतलबी लोग हैं यहां के मतलबों से घिरा यह जमाना है मतलब से जुड़ा रिश्ता है मतलब खत्म होने पर खत्म होते हैं रिश्ते सारे अजीब जमाना आ गया है ऐ साहब ! मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां।

हमसफ़र

मुझे  तुम्हारी   सुरत  नहीं,   सीरत    चाहिए। मुझे जो पलकों पर बिठाए, हमसाथी चाहिए।। मुझे   तुम्हारा   धोखा   नहीं,  साथ   चाहिए। मुझे  दर्द   देनेवाला   नहीं ,  हमदर्द   चाहिए।। मुझे बहुतों से जख्म  मिला  है,  मरहम  चाहिए। मुझे भी जिंदगी जीने के लिए,हमसफ़र चाहिए।। मुझे तन्हा बैठना नहीं पसंद, बोलनेवाला चाहिए। मुझे अब दुखों में जीना नहीं पसंद, खुशी चाहिए।। मुझे बहुतों ने आजमाया है, आजमाना चाहिए। मुझे भी अविश्वास में नहीं जीना,भरोसा चाहिए।। मुझे दूसरों के पीछे नहीं भागना, स्थिरता चाहिए। मुझे भी स्थिर होने के लिए, एक ठिकाना चाहिए।। मुझे किसी की परवाह किए, आगे बढ़ना चाहिए। मुझे अपने लिए मंजिल , खुद  तलाशना  चाहिए।।                                             प्रियदर्शन कुमार

खंडहर, जो कभी घर था

उन खंडहरों को देखो, जिसे कभी घर कहा जाता था, जिसमें कभी बच्चों की किलकारियाँ गूँजती थी, हँसी-ठहाके की आवाज़े आती थीं, चहल-पहल था, बुजुर्गों का साया था, भरा-पूरा परिवार था, खुशनुमा माहौल था, स्वार्थपरता का अभाव था, लेकिन समय बदला, दिन गुजरे, घर खंडहरों में तब्दील हुआ, दीवारों पर लटकी उन तस्वीरों को देखो, उनपर पड़े धूल की परतों को देखो, मकड़ी के जालों को देखो, वास्तव में यह परत, धूल की नहीं, दफ्न होतीं रिश्तों को बयां करती कहानी है, उन खंडहरों को देखो, उनमें पसरे सन्नाटे को महसूस करो, दीवारों पर पड़े दरारें देखो, मानो रिश्ते पर पड़ीं दरारें हों, दरवाजे-खिड़कियां-मेज-कुर्सियाँ, सुने पड़े उन झूले को देखो, मानो सबने जीना छोड़ दिया हो, सबके-सब मौन हैं, लेकिन, मौन होकर भी, बहुत कुछ बयां करती हैं, अपनी दास्तान कहती हैं, ये खंडहर, खंडहर नहीं है, ये आज का यथार्थ है, ये टूटती हुई परंपरा है, ये अलगाव है, स्वयं का स्वयं से, स्वयं का अपनों से, ये लोगों के अंदर की मरती संवेदना है, ये बदलते हुए परिवार और समाज का सच है, ये गवाह है, हम कहां थे और अब कहां हैं, हां, उ

साहित्य की सार्थकता : वर्तमान संदर्भ

साहित्य की सार्थकता : वर्तमान संदर्भ प्रियदर्शन कुमार ------------------------------------------------------------------- जब हम साहित्य की सार्थकता की बात करते हैं तो इससे हमारा आशय यह है कि एक साहित्यकार अपने साहित्यिक उत्तरदायित्व को निबाह पाने में कहाँ तक सफल रहा है?क्या उनके द्वारा रचित रचनाएँ साहित्य को सार्थकता प्रदान करता है? साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है तो क्या इस साहित्य रुपी दर्पण पर धूल की परत चढ़ गयी है जिसे समाज में विद्यमान कुरीतियाँ नजर नहीं आती हैं? क्या साहित्य माशूका के जुल्फों के साए तक सिमट कर रह गया है? क्या साहित्य की सोद्देश्यता यहीं तक सीमित है या फिर और कुछ भी?         मुझे लगता है कि आजकल साहित्य का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। साहित्य लव-सेक्स-धोखा, हाफ गर्ल-फ्रेंड, फूल बॉय-फ्रेंड या फूल बॉय-फ्रेंड तक सिमट गया है या सिमटता जा रहा है। साहित्यकार शायद यह भूल गए हैं कि एक साहित्यकार का काम है समाज के आगे-आगे चलना व उसे रास्ता दिखाना न कि समाज के पीछे-पीछे चलना। साहित्यकार शायद समाज को क्या चाहिए और समाज की क्या जरूरत है, के बीच अंतर करना भूल गए हैं।शायद

मैं लिखता हूँ तब, जब अंदर से रोता हूँ तब

मैं लिखता हूँ तब जब अंदर से रोता हूँ तब मैं अंदर से रोता हूँ तब जब पीड़ा में होता हूँ तब मैं पीड़ा में होता हूँ तब जब बिखरता हूँ तब मैं बिखरता हूँ तब जब अंदर से टूटता हूँ तब मैं अंदर से टूटता हूँ तब जब अपनों को दुखी देखता हूँ तब मैं अपनों को दुखी देखता हूँ तब जब खुद को अपनों के दुख का कारण मानता हूँ तब मैं खुद को अपनों के दुख का कारण मानता हूँ तब जब मेरे कारण अपनों के दिल पर ठेस लगती है तब मेरे कारण अपनों के दिल पर ठेस लगती है जब मैं पश्चाताप की अग्नि में जलता हूँ तब हां, मैं लिखता हूँ तब जब अंदर से रोता हूँ तब। प्रियदर्शन कुमार

दीप जलती नहीं मन की

दीप जलती है यहां मगर जलती नहीं मन की काश कि ऐसा हो पाता तो अंधियारा नहीं होता हर तरफ है यहां पर झूठ - फरेब का बोलबाला हर एक को देखते हैं लोग यहां घृणा भरी नजरों से अगर खत्म करना ही है तो खत्म कर घृणा अपने मन से दीप जलती है यहां मगर जलती नहीं मन की।             प्रियदर्शन कुमार