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जनमानस की आवाज़
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लेखक: प्रियदर्शन कुमार
प्रियदर्शन कुमार
काव्य संसार - 232 ===================== जनमानस की आवाज़ ===================== हे देश के तथाकथित कर्णधार, बेशर्म, बेहायी, दुराचारी, नरसंहारी सरकार, अरे तुम कितनों को दबाओगे, मुंह बंद करवाओगे, सेवा करने से रोकोगे, हम हारेंगे नहीं, डरेंगे नहीं, थकेंगे नहीं, चुप रहेंगे नहीं, तुम इडी लगाओ, सीबीआई लगाओ या लगाओ आईबी जो करना है, जो लगाना है, सब कुछ करो, एक दिन खुद थक जाओगे, मर जाओगे, लेकिन, लेकिन सेवा करने से किसी को नहीं रोक पाओगे, यह दधिचि की, बुद्ध की, नानक की, गांधी-सुभाष की धरती है, उन्होंने खुद के लिए नहीं, दूसरों के लिए ज़िया है और बलिदान दिया है, चंद लोगों को मारकर, उनका मुंह बंद करवाकर, तुम कैसे समझ गये, कि भारत भूमि सेवा-भाव से शून्य है, संवेदनाओं से शून्य है, हां ! हां ! हर युग में, तुम जैसे समाज को कलंकित करने वाले, आतताइयों का इस धरती पे जन्म हुआ, लेकिन जान लो उनका भी नाश हुआ, कोई अमर नहीं हुआ, फिर भी तुम्हारी आंखें नहीं खुलती बेशर्म, बेहाया करो जो करना है तुम्हें, तुम कभी रोक न पाओगे, किसी को जन-मानस की सेवा करने से। प्रियदर्शन कुमार
हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने
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लेखक: प्रियदर्शन कुमार
प्रियदर्शन कुमार
काव्य संख्या-231 ========================= हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने ========================= तुमसे दो पल की खुशी क्या मांग ली हमने, चंद वोटों की खातिर हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने। एक उम्मीद दिखी थी तुम में, उन उम्मीदों को अवसर में भुना लिया तुमने। इतने नीचे गिर जाओगे, कल्पना नहीं की थी तुमसे। सत्ता का आना जाना लगा रहेगा, पर देश बचाना जरूरी नहीं समझा तुमने। देश बनता है जनता से, पर जनता से हमदर्दी नहीं तुम्हें। श्मशान में ऐसे लाश जल रही है, मानो दीवाली मन रहा हो जैसे। खुद का घर अंधेरे में डूबा हो, दुनिया को दीपक दिखाने तुम निकले। पल-पल सांसे छोड़ रहीं हैं जीवन को, इसकी तनिक भी परवाह नहीं तुम्हें। तन-मन-धन बाहुबल से लगे रहे तुम, सत्ता को हथियाने में। दुनिया लड़ती रही महामारी को हराने में, उनमें एक तुम भी थे, जो लाउ-लश्कर के साथ लगे थे, एक नारी को हराने में। अरे जनता ही न रही तो, राज करोगे तुम किसपे। बेशर्मी की तब और हद हो गई, जन का जन की मदद करने पर, एफआईआर कर दिया तुमने। एक के बाद एक फरमान जारी किए तुमने, ताकि जनता आवाज न उठाए। ये कैसा फरमान है तुम्हारा, मारो भी, और रो
परिस्थितियां जितनी प्रतिकूल होंगी मानिए आपकी इंतिहा उतनी ही कठिन होंगी और आप उतने ही मजबूत होंगे और आपकी सफलता उतनी ही ऐतिहासिक होंगी। प्रियदर्शन कुमार
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लेखक: प्रियदर्शन कुमार
प्रियदर्शन कुमार