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जिंदगी

जिंदगी 18/07/2017 ========== मैं खुशी की तलाश में निकला था लेकर गम आ गया हूँ चलो, कुछ भी तो मिला दुनिया से, जो था उसके पास, उसने मुझे दिया चलो, उसी गमों के सहारे जी जाए जिंदगी। क्या-क्या सपने नहीं देखें थे मैंने सबको टूटते हुए देख रहा हूँ चलो, अच्छा हुआ !  उससे भी कुछ सिख मिल जाए मुझे। जिंदगी की किताबों में कई पन्ने ऐसे हैं जहाँ, सिर्फ पीड़ा-ही-पीड़ा है चलो, आज उस पन्ने को भी  पलट कर पढ़ ही लिया मैंने। पीड़ा भी जिंदगी जीना सिखाती है अपने और पराएपन अहसास कराती है  चलो, आज उस अहसास को भी महसूस कर लिया मैंने। पीड़ाएँ आती हैं आएं उससे मुझे कोई कुरेद नहीं चलो, ऐ जिंदगी उसे भी खुशी-खुशी अपनाएँ।                                       प्रियदर्शन कुमार

बचपन

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बचपन 18/07/2018 ========== काव्य संख्या-191 ================== बचपन कितना मनमोहक है  ================== देखो बचपन कितना अच्छा है  कितना खुश यह बच्चा है  न पढ़ाई-लिखाई की चिंता है  न मम्मी-पापा के डांट की बिल्कुल निर्भीक  न किसी प्रकार की जिम्मेदारी है  न किसी भी चीज की चिंता  न सामाजिक बंधन है  न किसी प्रकार का विरोध  न दुनिया-दारी की चिंता है  न पारिवारिक माया-मोह  हँसता-खेलता बच्चा है  अपने एक मुस्कान से सबका दिल जीत लेता है  स्वच्छ निर्मल मन बिल्कुल कोरा कागज  छल-कपट के लिए जगह नहीं  न इसे जाति का भान है  न ही किसी मजहब का ज्ञान  ऊंच-नीच मालूम नहीं उसे नहीं मालूम है उसे अमीरी-गरीबी  यह तो केवल बच्चा है  जो केवल वात्सल्य का भूखा है  जहां मिलता है प्यार उसे  उसी के पास चला जाता है  कौन है अपना,  और कौन पराया  नहीं है उसे पहचान  परिवार-समाज सबका चहेता है  सबके यहाँ आता-जाता है  सबका स्नेह पाता है  सच में,  बचपन कितना मनमोहक है।                 प्रियदर्शन कुमार

आह ! दफ्न होते मेरे स्वप्न

आह ! दफ्न होेते मेरे स्वप्न। (17/07/2017) -------------------------------- मैं श्मशान में बैठा, आते-जाते लोगों को देख रहा था उनकी बातों को सुन रहा था उनकी बातों को सुनकर ऐसा लगा, जैसे मानो मैं अपनी उस कल्पना के समाज में जी रहा हूँ जिसकी कामना मैं करता था जिसके लिए मैं निराशा में डूबा हुआ था। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था  जैसे उनके अंदर चेतना का प्रवेश हो गया हो सिर्फ नैतिकता की बातें हो रही थी, क्या लेकर आए हो क्या लेकर जाओगे, आपस में क्या बैर रखना, एक दिन हम सभी को भी इसी जलते हुए लाश की तरह ही, इसी मिट्टी में मिल जाना है, हम क्यों और किसके लिए अपने ईमान को बेचें, आदि-आदि बातें लोग कर रहे थे। लेकिन, जैसे ही संस्कार के बाद नदी में स्नान कर निकलते है मानो उनकी चेतना उनका विवेक उनकी बुद्धि, सारा कुछ उसी स्नान के साथ धूल गया हो फिर, उसी दिन-दुनिया में लौट आते हैं एक बार फिर, मेरे सपनोँ का समाज स्वप्न में ही बना रह जाता है हकीकत का रूप नहीं ले पाता। इसप्रकार, टूटते हुए स्वप्न को देखकर एक बार फिर, मैं निराशा में डूब गया आह ! दफ्न होेते मेरे स्वप्न।               प्रियदर्शन कुमार

मैं असभ्य हूं

मैं असभ्य हूं (16/07/2016) =========== मैं असभ्य हूँ --------------- पुराने जमाने के लोग  बहुत भावुक हुआ करते थे, थोड़ी-सी भी नैतिकता पर  आंच आने से इमोशनल हो जाया करते थे। पर अब जमाना बदल गया, समाज तो वहीं है पर, समाज में रहने वाले लोग बदल गये। अब नैतिकता शब्द बेगाना हो गया। परिवार अब पति-पत्नी-बच्चे तक सीमित हो गया। अपने सुख से सुखी खुशी के मतलब हो गये। सम्वेदना और सहानुभूति शब्द से  हम अपरिचित गये। इसे ही हम अगर सभ्य होना कहते हैं, तो मैं असभ्य कहलाना अधिक पसंद करूंगा।                                       प्रियदर्शन कुमार

मैं जानवर हूं

मैं जानवर हूं (16/07/2017) =========== हे ईश्वर ! अब तो मानव कहलाने में भी शर्म आती है मानव को। मानवता को ही शर्मसार कर दिया है मानव ने। अब तो जानवर भी तंज कसते हैं मानव पर, घृणा की नजरों से देखते हैं मानव को। मानव को देख! जानवर भी आँखें तरेरते हैं, अपने-आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। खुद को मानव की बजाय जानवर ही कहलाना पसंद करते है। वह कहता है कि अच्छा है, मुझे ईश्वर ने बुद्धि नहीं दिया, काश ! ऐसा हो जाता, तो मैं भी, अपनी ही प्रजाति को  काटने को दौड़ता। अगर मेरे अंदर ज्ञान होता, तो समष्टि के बजाय व्यष्टि हो जाता, खुद अपने बारे में ही सोचता, खुद की स्वार्थ-सिद्धी में लगा रहता। मेरे भी आँखों का पानी सुख जाता, मेरे अंदर भी ईर्ष्या-द्वैष का भाव जन्म ले लेता, मैं भी हमेशा दम्भ में चूर रहता। अच्छा है ! मैं जानवर हूँ।           ‌‌प्रियदर्शन कुमार

दर्द-ए-बयां

दर्द-ए-बयां (14/07/2017) --------------------- मैं कैसे करूँ अपने दर्द-ए-बयां , जो आज तक नहीं की। मेरे पास शब्द नहीं हैं , दर्द-ए-बयां करने को। हां ! एक तरीका और है, दर्द-ए-बयां करने का, कि मैं मौन रहूँ ; और मुख से कुछ न बोलूँ ,/ बस, उसे सहता रहूँ। क्योंकि, मौन भी अभिव्यंजना का एक तरीका है। चुपचाप दूसरों के दर्द-ए-दिल का  हाल सुनता रहूँ , और खुद मौन रहूँ। चाहता हूँ , कि दर्द को ही अपना हमसफ़र बना लूँ , और दर्द में ही जीना सिख लूँ ,/ ताकि दर्द कुछ कम हो जाए। सुना है, दर्द से दर्द टकराने पर , दर्द कम हो जाता है। हां ! यही अच्छा होगा , कि दर्द में ही ठहर जाऊँ।            प्रियदर्शन कुमार

मैं लिखता हूं तब

काव्य संख्या-190 ============== मैं लिखता हूँ तब  जब अंदर से रोता हूँ तब (13/07/2018) ============== मैं लिखता हूँ तब  जब अंदर से रोता हूँ तब मैं अंदर से रोता हूँ तब  जब पीड़ा में होता हूँ तब मैं पीड़ा में होता हूँ तब जब बिखरता हूँ तब मैं बिखरता हूँ तब जब अंदर से टूटता हूँ तब मैं अंदर से टूटता हूँ तब जब अपनों को दुखी देखता हूँ तब मैं अपनों को दुखी देखता हूँ तब  जब खुद को अपनों के दुख का कारण मानता हूँ तब मैं खुद को अपनों के दुख का कारण मानता हूँ तब जब मेरे कारण अपनों के दिल पर ठेस लगती है तब मेरे कारण अपनों के दिल पर ठेस लगती है जब मैं पश्चाताप की अग्नि में जलता हूँ तब हां, मैं लिखता हूँ तब  जब अंदर से रोता हूँ तब।            प्रियदर्शन कुमार

आईना है वो

काव्य संख्या-189 =============== आईना है वो  (13/07/2018) =============== अक्सर मुझे चिढ़ाता है वो मेरी चापलूसी नहीं करता है वो सच को सच कहता है वो लोग झुक जाते हैं मेरे आगे मैं झुक जाता हूँ उसके आगे आँख से आँख मिलाकर  मुझसे बातें करता है वो हां, कोई और नहीं  आईना है वो।  मुझे मेरी नजरों में गिराता भी है वो और उठाता भी है वो मेरी नींदो को चुराता है वो चैन की नींद सुलाता भी है वो मुझे बेचैन भी करता है वो  और शांति भी देता है वो मुझे रूलाता भी है वो और हँसाता भी है वो हां, कोई और नहीं  आईना है वो।  मेरे दर्प को तोड़ता भी है वो मुझे रास्ता भी दिखाता है वो मुझे ठोकरें भी देता है वो मुझे सम्भालता भी है वो मुझे प्रेरणा भी देता है वो हां, कोई और नहीं  वह आईना है वो  प्रियदर्शन कुमार

खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं,

काव्य संख्या-188 (11/07/2018) ==================== खामोशियां भी  कुछ  कह  रहीं हैं  गर तुम समझ  सको  तो  समझो।  ==================== खामोशियां भी  कुछ  कह  रहीं हैं  गर तुम समझ  सको  तो  समझो।  सबकुछ लफ्जों में बयाँ नहीं होते हैं  गर इशारों में समझ सको तो समझो।  हर  तरफ  पसरा  हुआ  है  सन्नाटा  गर सन्नाटे को समझ सको तो समझो।  शहरों का मिजाज बदला-बदला सा है  गर  खुद  को  बदल सको  तो  बदलो ।  हवाओं ने भी अपनी दिशा बदल ली है  गर अकेला  आगे बढ़  सको तो बढ़ो ।  हर  तरफ  नफरतों का बोलबाला  है  गर प्यार के फूल खिला सको तो बढ़ो।  हर तरफ खतरा ही खतरा है  गर आगे बढ़ सको तो बढ़ो।              प्रियदर्शन कुमार

विलाप

विलाप (11/07/2017 ========== विलाप ---------------------------------- हे ईश्वर , कब तक नफ़रत की आग में जलती रहेगी यह दुनिया कब तक झुलसते रहेंगे लोग कब तक बेगुनाहों के खून से लाल होती रहेगी यह धरती कब तक छलनी होती रहेगी धरती का सीना कब तक खत्म होगा यह समाज में फैला हुआ अलगावाद-कट्टरपंथवाद सम्प्रदायवाद-जातिवाद कब तक टूटेंगी इनकी कड़ियाँ कब तक आजाद होंगे लोग इन जकड़नों से कब तक लोग हैवानियत का रास्ता छोड़ , इंसानियत को गले लगाएंगे या फिर, यह इनकी नियति ही बनकर रह गई है हे ईश्वर !  अब तुम्हें ही निकालना है दुनिया को इस मकड़जाल से एक बार फिर, तुम्हारा अवतार लेने का समय आ गया है अब तुम्हें ही आजाद करना होगा दुनिया को इस दुष्चक्र से नहीं, तो एक दिन सबको लीन जाएगी यह दोगली राजनीति।                         प्रियदर्शन कुमार

सावन

सावन (10/07/2018) =========== चलो सखी , सावन आ गया सावन की पहली बारिश में हम भींगे और प्रकृति के साथ एकाकार हो जाए नहीं सखी , यह बारिश मेरे तन के ताप को घटाने की बजाय  उसे और बढ़ाएगा ही मेरे प्रियतम की अनुपस्थिति में सावन की पहली बारिश का होना मानो वह मुझे चिढ़ा रहा हो मेरे जख्मों पर मरहम लगाने की मानो वह उसे और कुरेद रहा हो हरी-भरी घास हरे-भरे पेड़-पौधे नाचते हुए मोर कहकहा करते कोयल उफनती हुई नदियाँ  मानो प्रकृति ने सोलह श्रृंगार कर लिया हो औरे मुझे जला रही हो प्रकृति का यह मनोरम दृश्य मुझे पिछले सावन की पहली बारिश की याद दिलाती है जब  मेरा प्रियतम मेरे साथ था  दोनों बारिश में भींगते  अठखेलियाँ करते आह ! वे भी क्या थे।  प्रियदर्शन कुमार

मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां

काव्य संख्या-187 ============ मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां (10/07/2018) ============ मौसम की तरह  बदलते हैं लोग यहां  ऐ साहब ! अगर मैं हँसता हूँ तो  सभी मेरे साथ हँसते हैं  और जब मैं रोता हूँ तो  केवल मैं ही रोता हूँ  साथ छोड़ जाते हैं लोग  हालात से खुद लड़ते हैं  अपने हाल पर जीते हैं  लोग तमाशबीन बन जाते  बेगानों की तरह व्यवहार करते  अपनी निगाहें फेर लेते  शायद यही जिंदगी है  जिंदगी का मतलब यही है  किसे अपना कहे  किसे कहे बेगाना  मतलबी लोग हैं यहां के मतलबों से घिरा यह जमाना है  मतलब से जुड़ा रिश्ता है  मतलब खत्म होने पर  खत्म होते हैं रिश्ते सारे  अजीब जमाना आ गया है  ऐ साहब ! मौसम की तरह बदलते हैं लोग यहां।     प्रियदर्शन कुमार

मैं मानव हूं

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मैं मानव हूं (08/07/2018) =========== काव्य संख्या-186 =========== मैं मानव हूँ  =========== जब मैं कहता हूँ  मैं मानव हूँ  मुझे खुद पर हँसी आती है  खुद को ठगा हुआ भी महसूस करता हूँ  जबकि मेरे अंदर की मानवीयता कबकि मर चुकी है  मैं संवेदनहीन औ' चेतना से शून्य कबका हो चुका हूँ  न स्नेह है और न दूसरों के प्रति सम्मान का भाव  न ममता है और न त्याग है  दूसरों को रोते देखकर भी अपनी निगाहें फेर लेता हूँ  फिर भी कहता हूँ  कि मैं मानव हूँ।  आदमी और जानवर का  फर्क मिट चुका है  वो भी खुद के लिए जीता है  और मैं भी खुद के लिए जीता हूँ  या यूं कहें कि  उससे भी नीचे गिर गया हूँ  उनमें भी एकता है  अपनी जातियों के प्रति  समर्पण की भावना है  सुख हो या दुख हो  साथ-साथ रहते हैं  न छल है न कपट है  फिर भी गर्व से कहता हूँ  कि मैं मानव हूँ।  प्रियदर्शन कुमार

आंचल की छांव

आंचल की छांव (08/07/2017) =========== मंदिर घूमा मस्जिद घूमा और घूमा गिरजा-घर मैं शांति की खोज में घूमा सारा जहां मैं लेकिन कहीं नहीं  मिली शांति मुझे मिली तो मिली शांति मुझे मेरी मां के  आंचल की छाँव में ।       प्रियदर्शन कुमार

सुनो कवि

सुनो कवि 07/07/2017 ========== सुनो कवि ! चाहे तुम जो लिखो लेकिन ऐसा कुछ मत लिखो जिससे लोगों की भावनाएं आहत हों भावनाएं आजकल बहुत ही संवेदनशील हो गई हैं छोटी-छोटी बातों पर ये आहत हो जाती हैं हो सकता है कि तुम भी कभी  भावनाओं को आहत  करने के जुर्म में भावनात्मक रूप से आहत भीड़तंत्र द्वारा बीच सड़क पर  कुचल कर मार दिए जाओगे या फिर भावनाओं के आहत  करने के आरोप जेल जाना पड़ सकता है कोई इसके विरोध में आवाज़ तक नहीं उठाएगा चाहे वह मीडिया हो नेता हो सिविल सोसाइटी हो या फिर सरकार हो सुनो कवि ! मैंने एक बार फिर तुम्हें अगाह कर दिया कि ऐसा कुछ मत लिखो जिससे लोगों की भावनाएं आहत हों।                   प्रियदर्शन कुमार

मेरे देश के लोग

मेरे देश के लोग (06/07/2017) =========== लोगों,  मेरे देश के लोगों कब तक तमाशबीन बने रहोगे कब तक सहते रहोगे अन्याय अन्याय करना जितना बड़ा गुनाह उतना-ही बड़ा गुनाह अन्याय सहना भी है भीड़ का हिस्सा मत बनो आवाज़ उठाओ उस असामाजिक तत्वों के खिलाफ जो समाज में  साम्प्रदायिकता के बीज बो रहे हैं दो समूहों को आपस में लड़वा रहे हैं उस जड़ को काट डालों जहां से यह जन्म लेता है वक्त आ गया है कि अब हम अपनी आवाजें बुलंद करें मत आओ इनके बहकावे में मत आंच आने दो अपने भाईचारे पर अपनी अंतर्आत्मा की आवाज़ सुनों मत सुनों आतताइयों की बातें।                   प्रियदर्शन कुमार

आईना

आईना (05/07/2017) =========== जब भी आईने पर चढ़ें धूल के परत को हटाता हूँ मुझे मेरा वास्तविक चेहरा नज़र आता है हो जाता है मेरा सच्चाई से सामना जिसे मैं झुठला भी नहीं सकता और न ही नजरें चुरा सकता हूँ यह एक तरफ यदि मुझे मेरी शक्ति और मेरे सामर्थ्य से परिचय करवाता है तो दूसरी तरफ यह मुझे मेरी कमजोरियों से भी रूबरू करवाता है यह मेरा मार्गदर्शन भी करता है यह मुझे खुद से  बातें करने के लिए उत्प्रेरित करता है जब भी आईने पर चढ़ें धूल के परत को हटता हूँ मुझे मेरा वास्तविक चेहरा नज़र आता है। प्रियदर्शन कुमार

मां

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मां (04/07/2017) ============= मां ! मैं हर बार तुम्हें  परिभाषित करने की कोशिश करता हूँ हर बार मेरे शब्द कम पर जाते हैं शब्दकोश भी असमर्थ हो जाता है बताओं तुम्हें कैसे परिभाषित करूँ तुम्हारे लिए शब्द कहां से लाउं सारा ब्रह्माण्ड तुम्हारे सामने नतमस्तक हो जाता है सबसे उपर तुम्हीं-तुम हो तुम्हारा न कोई आदि है  और न अंत है सबकुछ तुम्हीं से शुरू होता है और तुम्हीं पर जाकर अंत हो जाता है तुम्हारे बिना सृष्टि की कल्पना अधूरी है तुम्हीं स्रष्टा हो तुम्हीं ममता की देवी हो तुम्हीं त्याग हो तपस्या हो बलिदान हो तुम्हीं मेरी शक्ति हो तुम्हीं  मेरा सामर्थ्य हो तुमसे बाहर न तो कुछ है और न ही हो सकता है।           प्रियदर्शन कुमार

बारिश की बूंदें

बारिश की बूंदें (03/07/2017) =========== बारिश की बूंदें जब पड़ती है धरा पर धरा मानो जैसे फिर से यौवनावस्था में  प्रवेश कर गई हो चारों ओर हरियाली छा जाती है ऐसा लगता जैसे  बादल से दूर होने  के कारण विरह की ताप में जल रही धरा पर जैसे ही बारिश की बूंदे  पड़ती है वैसे ही  उसकी आत्मा को तृप्ति मिल गई हो धरती की इस वेदना को बादल समझता है और  धरती भी जानती है झमाझम बारिश कर उसकी तपिश को बादल ही शांत कर सकता है बादल और धरती के मिलन से मानो ऐसा लगता है जैसे पेड़-पौधे पर्वत झरना उफनती नदियाँ खुशी से झूम रहे हों नाचते हुए मोर कलरव करती पक्षियां दोनों के मिलन से प्रफुल्लित हो  जैसे स्वागत गान गा रहे हों।                प्रियदर्शन कुमार

हां ! मैं दुख में ही स्थिर हो गया हूं

हां ! मैं ही दुख में जाकर स्थिर हो गया हूँ। (02/07/2017) --------------------------------------------------- मैं अक्सर सोचता हूँ व्यथित मन को शांत करने हेतु कुछ ऐसी कविताएँ लिखूँ जिससे मन में शांति हो पता नहीं  जीवटता-जिजीविषा-खुशी-उल्लास जैसे शब्द मेरे शब्दकोश से कहां चले गए और बचे रह गए  संत्रास-कुंठा-अजनबीयत-हताशा जैसे शब्द। जब भी कलम उठाता हूँ लिखने को मेरे जेहन से ऐसे ही शब्द निकलते हैं  जो मेरे चित्त को  शांत करने में असमर्थ हैं। पता नहीं  इसमें किसका दोष है मेरा या फिर समय का जिसके साथ चलने में मैं असमर्थ हो गया हूँ और स्थिर रह गया हूँ अशांति के जाल में हां ! मैं ही स्थिर हो गया हूँ कालचक्र में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता है जो निरंतर चलते रहता है हां ! मैं ही दुख में जाकर स्थिर हो गया हूँ।

कुछ तो बात है

कुछ तो बात है (02/07/2017 ) ===================== हुक्मरानों से कह दो गौ रक्षा के नामपर कत्ल-ए-आम बंद करे क्योंकि इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता में कमी नहीं आनेवाली इसमें और मजबूती ही आएगी हुक्मरानों से कह दो हमारी एकता को  तोड़ने के लिए कोई और तरीका इजाद करें कह दो गांधी और गोडसे को साथ-साथ पूजने वाले से हम चीज ही कुछ ऐसी हैं कि हमारी हस्ती मिट नहीं सकती हमारी हस्ती मिटाते-मिटाते अंग्रेज-फ्रांसीसी-पुर्तगाली-डच चले गए फिर इनकी बिसात क्या कह दो इन्हें वक्त रहते सुधर जाए नहीं तो एक क्रांति की लहर उठेगी जो इस प्रजाति का समूल नष्ट कर देगी।    प्रियदर्शन कुमार