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अलविदा 2019 !

काव्य संख्या - 220 ============ अलविदा 2019 ! ============ 2019 ! तुमने तो इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लिया लेकिन, उनके लिए क्या किया? उनके लिए क्या छोड़ा? कभी न मिटने वाला एक अंधेरा, जिन्होंने अंधकार से लड़कर मध्य रात्रि को रौशनी से सराबोर कर दिया तुम्हारे स्वागत के लिए बाहें फैलाए खड़ा रहा। न जाति, न धर्म, न भाषा बिना किसी भेदभाव के सभी ने, एक साथ मिलकर, एक स्वर में स्वागत के गीत गाए। लेकिन, तुम्हारा क्या तुम स्वार्थी जो निकले हमारी सरकार की तरह, वोट सबका लिया कल्यान अपने लोगों का किया। तुम आरोपी हो, करोड़ों लोगों के इस देश पर पड़ने वाली तुम काली छाया की तरह हो तुम्हारा चला जाना ही अच्छा है अलविदा 2019 !   प्रियदर्शन कुमार

चाहे ज़माना कुछ भी कर ले

काव्य संख्या-219 ================= चाहे ज़माना कुछ भी कर ले ================= मैं जिंदा हूं जब तक मैं बोलूंगा तब तक चाहे ज़माना कुछ भी कर ले। मैं यूं ही नहीं, बैठने वाला हूं ज़माना तू सुन ले तू मेरी बात पर ध्यान दे या न दे लेकिन तू इतना जान ले..... मेरे मरने के बाद याद आएंगी मेरी हर बात तुम्हें ज़माना तू इतना सुन ले मैं जिंदा हूं जब तक मैं बोलूंगा तब तक चाहे जमाना तू कुछ भी कर ले। हम सभी इंसान हैं एक ही ईश्वर के संतान हैं सबके ख़ून एक हैं फिर यह भेदभाव कैसा..… क्यों न हम सब मिलकर इसके खिलाफ आवाज़ उठाएं क्यूं हम उनसे डरें क्यूं हम उनके रहमो-करम पर जिएं जिन्हें हमनें ही सिंहासन पर है बैठाया..… मैं जिंदा हूं जब तक मैं बोलूंगा तब तक चाहे ज़माना कुछ भी कर ले। जब हम सब एक हैं हमारी ज़रूरतें एक हैं हम क्युं न साथ मिलकर आगे बढ़ें..… हम सब की साझी शहादत है हम सब की साझी विरासत है हम सब एक ही दिन आजाद हुए..... फिर हम सब आपस में क्यूं एक-दूसरे से उलझे बांटने वाला हमें बांटेंगे ही उन्हें जो है हमपे राज़ करना मैं तो इनका ख़िलाफत करूंगा..... मैं जिंदा हूं जब

विकास ! तुम कहां हो

विकास ! तुम कहां हो ? मैं सब जगह तुम्हें ढ़ूंढ़ रहा हूँ, शहरों में गांवो में गलियों में मुहल्लों में नहीं पता, कहीं भी तुम्हारा कितने बरस बीत गए अगर कहीँ हो, तो बताओं पेपर पत्रिका टीवी रेडियो के जरिए भी तुमसे सम्पर्क करने की कोशिश की। हर चौराहे पर जा जाकर लोगों से पूछा। क्या किसी ने 'विकास' को देखा है? हर तरफ से एक ही आवाज़ आ रही थी- नहीं ! हलांकि 'विकास' को ढ़ूंढ़ने में 'सबका साथ मिला' लेकिन 'विकास' किसी को भी नहीं मिला। तब अचानक एक दिन एक सज्जन मिला जिनका नाम रूहूल अमीन था। मुझे परेशानी में देखकर उन्होंने मुझसे पूछा- भाई क्यों परेशान हो ? मुझे बताओ तब मैंने उनसे पूछा कि मेरे विकास को आपने कहीं देखा है? उन्होंने बोला हां हां; मैंने देखा है। मैंने पूछा कहां? तब उन्होंने बताया "शाह" के घर में। अब जाकर मेरे क्लेजे में ठंडक पहुंची।                               प्रियदर्शन कुमार

छोटी-सी जिंदगी

काव्य संख्या-154 ----------------------------- इस छोटी-सी जिंदगी की कथा कैसे मैं आज कहूं क्या लिखूं और क्या छोड़ू क्या भूला और क्या याद करूं कहां से शुरू और कहां खत्म करूं किसे अपना और किसे पराया कहूं किसी ने दुख दिया तो किसी ने उबारा कहीं सम्मान मिला तो कहीं अपमान कभी साथ मिला तो कभी तन्हाई मिली कभी प्यार मिला तो कभी दुत्कार मिला सामने में हंस-हंस के बातें करते हैं पीठ पीछे मेरी खिल्लियां उड़ाते हैं कोई पागल तो कोई मुर्ख समझते हैं खुद ही रूठता हूँ और खुद को मनाता हूँ लोगों की बातें सुनता हूँ फिर भी हमेशा मुस्कुराता रहता हूँ अब तो आदत-सी बन गई है बस यहीं सोचकर चलता हूँ जिंदगी तो जीना है, जी रहा हूँ मैं न कोई गिला है, और न कोई शिकवा किसी से दुनिया की भीड़ में, मैं खुद को अकेला पाता हूँ यह बदकिस्मती है मेरी या है फिर मेरी नियति इस छोटी-सी जिंदगी की व्यथा कैसे मैं आज कहूं क्या लिखूं और क्या छोड़ू क्या भूला और क्या याद करूं।                    प्रियदर्शन कुमार

अंधेरा अच्छा लगता है मुझे

काव्य संख्या-159 ----------------------------- कभी-कभी अंधेरे में भी रहना अच्छा लगता है मुझे कभी-कभी कल्पना की दुनिया में भी जीना अच्छा लगता है मुझे अपेक्षाएं पूरी होती दिखती हैं मुझे कल्पनाओं में मेरी जब भी हकीकत से सामना होता है मेरा कांप जाते हैं रूह मेरे चेहरे सूखने लगते हैं खुशी अनजानी-सी मालूम पड़ती है मुझे बिन पानी की मछली की तरह छटपटाता हूँ मैं खुद की जिंदगी से घिन्न आती है मुझे जिसने जिंदगी दी मुझे जिसने मेरे लिए अपनी सारी को खुशियों को न्योछावर कर दिया उनके आँखों में आने वाली आँसूओं को रोक पाने में खुद को अक्षम पाता हूँ मैं।              प्रियदर्शन कुमा र

ऐ शहर ! मैं लौट रहा हूं अपने गांव

काव्य संख्या-157 ---------------------------------------- ऐ शहर ! लौट रहा हूँ अपने गाँव ---------------------------------------- ऐ शहर ! जी भर गया है मेरा तुमसे अब दिल लगता नहीं मेरा यहां अब नहीं रहना है मुझे तेरे शहर में तुम्हारे शहर में खो-सी गयी है कहीं पहचान मेरी नाम की बजाय नम्बरों में मैं बदल गई है पहचान मेरी कब तुम्हारे भीड़ का हिस्सा बन गया पता नहीं कब मैं पुतला बन गया पता नहीं कब स्वार्थी बन गया पता नहीं कब मेरे अंदर से मूल्य मर्यादा नैतिकता दया करूणा का भाव निकल गया पता नहीं तुम्हारे शहर की हवा बड़ी जहरीली है जहरीले लोग वहां बसते हैं वहां के लोगों में नफरत का जहर फैला है अब लौट रहा हूँ मैं अपने गाँव टूट-सा गया है मेरा रिश्ता मुझे मेरे गाँव से टूट-सा गया है मेरा रिश्ता बचपन में बिताए गए उन पलों से जिसे मैंने बिताए थे मित्रों के साथ टूट-सा गया है मेरा रिश्ता उन दलानों घरों मुंडेरों से उन गलियों मुहल्लों से घूमा करता था दूसरों के यहां घूम-घूम कर खाया करता था सबसे प्यार पाया करता था टूट-सा गया है मेरा रिश्ता अपने जड़ जंगल जमीन से नदी तालाब और

दर्द

दर्द को दवा बना लिया मैंने दुख को साथी बना लिया है मैंने अब तो आदत सी बन गई है दुखों में रहने की मुझे। अब तो रहते हैं हमेशा मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट दुखों को जाम बनाकर पी लिया है जो मैंने। अब तो दुख नहीं देते हमारे आँखों में आँसू आने दुख को जो अपना बना लिया है मैंने। अब तो दुख, तोड़ता नहीं मुझे यह निर्माण करता है मेरा दुख को हमसफ़र बना लिया है जो मैंने। अब तो सुख के चंद लम्हों से डर लगता है मुझे दुख में जीने की आदत पाल लिया है जो मैंने। अब तो लाख मुसिबतें आती हैं मुझपर अडिग हो खड़ा रहता हूँ मैं दुख को जीवन का हिस्सा बना लिया है जो मैंने।        प्रियदर्शन कुमार

हे मानव

हे मानव ! तुम्हीं बताओं तुम सभ्य हुए कहां? जब तुम्हारे अंदर चेतना होकर भी चेतना से शून्य हो विचारयुक्त होकर भी विचार से शून्य हो सोचन-शक्ति होने के बाद भी सोचने की तुम्हारी क्षमता क्षीण हो गई हो तुम्हीं बताओं तुम सभ्य हुए कहां? जब तुम्हारे अंदर दूसरों के प्रति न अनुराग का भाव है औैर न सम्मान का जब तुम्हारे अंदर दूसरों के प्रति न संवेदना है और न सहानुभूति है अब तुम्हीं बताओं तुम सभ्य हुए कहां? जब तुम न किसी के आँसू पोछ सकते हो न संवेदना के दो शब्द बोल सकते हो न तुम गिरते हुए को सम्भाल सकते हो अब तुम्हीं बताओं तुम सभ्य हुए कहां? जब तुम्हारे मन में दूसरों के प्रति घृणा वैर भाव है तुम हमेशा दूसरों का अहित सोचते हो दूसरोँ को डसने के लिए हमेशा तैयार रहते हो सांप से ज्यादा जहरीला हो हे मानव ! तुम्हीं बताओं तुम सभ्य हुए कहां?      प्रियदर्शन कुमार

ऐ जिन्दगी

ऐ जिंदगी तू कदम-कदम पर मेरा इंतिहा ले तू कदम-कदम पर मुझे असफल कर तू लाख ठोकरें दे मुझे मैं उठ खड़ा हो फिर संघर्ष करूंगा न मैं नियति के भरोसे बैठूंगा न मैं नियति को कोसूंगा न मैं अपनी अपनी हार का ठीकरा दूसरोँ पर उतारुंगा,जो भी हो लेकिन हार नहीं मानूंगा रूकना नहीं ठहरना नहीं बस आगे बढ़ता जाना है तूझे जो करना है कर तू जमीन-आसमां एक कर मैंने हारना नहीं सीखा मैंने झुकना नहीं सीखा मैंने गिरगिराना नहीं सीखा मैंने हाथ फैलाना नहीं सीखा जीत में कि हार में जो होगा करूंगा लेकिन तुम्हारे सामने घुटने नहीं टेकूंगा तूझे जो करना है कर मैं लड़ूंगा हर कदम पर लड़ूंगा हर सांस तक लड़ूंगा।      प्रियदर्शन कुमार

जिंदगी की किताब

जिंदगी की किताब को पढ़ना है नहीं आसां कभी हंसाती है कभी रुलाती है ऐ जिंदगी तेरी अजब कहानी है तू गजब का खेल खेलाती  है है इसमें इतनी गुत्थियां कि कभी सुलझती ही नहीं जितनी जानने की कोशिश करो उतनी ही पहेली बनती चली जाती है न जाने कितनी गांठें पड़ी है जिंदगी खत्म हो जाती है लेकिन कभी खुलती नहीं लड़नी पड़ती है लड़ाई हर कदम-कदम पर मर्जी चलती नहीं इसपर एक भी लाख कोशिश करो ये हाथ आती नहीं कभी ये मुझे झेलता है कभी मैं इसे झेलता हूँ कभी हार मिलती है तो कभी जीत मिलती है इस तरह लड़ते-लड़ते खत्म हो जाती है जिंदगी जिंदगी की गणित को समझना है ये आसां नहीं। प्रियदर्शन कुमार

जिंदगी

ऐ जिंदगी तू गमों के बारात को लेकर मेरे दरवाजे पर आए हो मैं नाराज न होने दूँगा तुम्हें मैं खाली न लौटाउँगा तुम्हें स्वागत है तुम्हारा इस गरीब के दरवाजे पर अमीर दिल के साथ लो, मैं वर लेता हूँ तुम्हारे सारे गमों को न मेरी आँखें नम होंगी न मैं मायूस होउंगा वैसे भी, अब आदत-सी पड़ गई है वेदना में जीने की मुझे तू खुश रह इससे ज्यादा नहीं चाहिए और कुछ भी मुझे तूझे जो था देने के लिए तूने मुझे दिया मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ।               प्रियदर्शन कुमार

टूटते रिश्ते

सम्पत्ति चाह में छूट गए सब रिश्ते-नाते नए संबंध बनते पुराने छूटते चले गए धन अर्जन की आपाधापी में तोड़ दिए सारे सामाजिक बंधन को अब न कोई अपना रहा और न कोई पराया सारे रिश्ते-नाते स्वार्थ के बंधन से जुड़ हुए हैं आँखों पानी सुख गया लोग निर्लज्ज हो गए हैं उसके पीछे भाग रहे हैं सूर्य को संतरा समझ न समझ बन न वास्विकता से लेना-देना न सोचने-समझने की क्षमता रह गई बाक़ी आँख पर काली पट्टी बांध बस, भाग रहे हैं खुद के स्टेटस के चक्कर में मूल्य मर्यादा नैतिकता सब, पीछे छोड़ लूट-खसोट में लग पड़े हैं।              प्रियदर्शन कुमार

लूट

लूटो लूटो लूटो और लूटो यह देश लूटेरों का है जनता लूटने के लिए ही है पुर्तगाली डच फ्रांसीसी और अंग्रेजों के द्वारा देश को लूटा गया गोरे तो लूट कर चले गए अब लूटने की तुम्हारी बारी है अब तुम लूटों लूटवाने के लिए जनता बैठी है जनता को विरोध मत करने देना विरोध का स्वर निकलने पर हलख से जवान खींच लेना सत्ता में हो तुम कछ भी कर सकते हो तोता-मैना पूलिस प्रशासन सब तुम्हारे अंदर हैं विपक्ष विकलांग हो गया मीडिया रखैल बन गई सिविल सोसाइटी गूंगी बन गई है भक्त तांडव कर रहे हैं जनता नियति के भरोसे बैठी हुई है और अलौकिक शक्ति का इंतजार कर रही है ताकि उसे आतताइयों से मुक्ति दिला सके तुम स्वतंत्र हो कुछ भी करने के लिए लूट का ऐसा दंभ मचा दो आनेवाली पीढ़ियाँ सदा तुम्हें याद रखे।     प्रियदर्शन कुमार

लोकतंत्र के प्रहरी

दीन हीन कर्महीन हमारे लोकतंत्र के प्रहरी चाह है विश्व गुरु बनने की लक्षण एक नहीं मानवता की गाते हैं विकास की नई-नई गाथा सुनो भाई इनके शासन में महिलाओं की करुण गाथा लूटते हैं राह चलते महिलाओं की अस्मत लज्जा नहीं  आती है तुम्हें बेल्लज देते हो  बेटी बचाओ बेटी पढाओ के नारे बचा नहीं पाते  बेटी के आबरू और इज्जत लज्जा नहीं आई तुम्हें बहन-बेटियों पर लाठियां चलवाने में क्या यहीं दंभ भरते हो जनमानस के आगे बेखौफ घूम रहे हैं हवस के सौदागर तुम दोष निकालते हो बेटियों के उपर खुले आम कर रहे हैं तुम्हारे गुंडे तांडव अनुशासन की सीख देते हो लड़कियों के उपर उम्मीद भी कैसे की जा सकती है तुमसे जो खुद की पत्नी को कर दिया है उसे उसके अधिकार से वंचित वो क्या समझे दूसरों की बहन-बेटियों इज्जत महिलाओं की आबरू  बचाने की खातिर भीम ने चिर दिया था दुशासन का सीना तुझसे मैं क्या अपेक्षा करूं बेशर्म  बेहाया कुत्ते और कमीना कहाँ गया तुम्हारा तोता-मैना पुलिस प्रशासन है  हिम्मत तो चिर दो आज के दुशासन का सीना ताकि भविष्य में आँख उठाकर न देख सके बहन-बेटियों को रख लो कुल की मान-मर्यादा का।    

स्त्री की पीड़ा

स्त्री की पीड़ा ----------------- किसे सुनाऊँ मैं अपनी  पीड़ा जिससे भी कहती अपनी पीड़ा वह और जख्म कुरेदता है मेरा समझाने लगता है वो मुझे नारी के गुण-धर्म ये मत करो वो मत करो तुम ऐसे कपड़े मत पहनो तुम घर से इतने बजे के बाद बाहर मत निकलो नजरें झुकाकर चला करो तुम्हें ये खाना है वो नहीं खाना है तुम लड़की हो तुम्हें यह शोभा नहीं देता घर से बाहर तक लगा देते हैं मुझपर पहरा कदम-कदम पर नीचा दिखाया जाता है हमें जन्म से लेकर मृत्यु तक हर जगह पहरा बेटी-बहन-पत्नी-मां हर जगह पुरूषों का नियंत्रण थोप दिए जाते हैं मुझपर सारे सामाजिक बंधन कर दिया जाता है मुझे दूसरों पर आश्रित किया जाता है व्यवहार मेरे साथ दासियों जैसा किया जाता है मेरे मान का मर्दन ऐसा लगता है जैसे मैं वस्तु बन गई हूँ ऐसा लगता है जैसे लड़की के रूप में जन्म लेना कोई बहुत बड़ा गुनाह हो जिस एवज में इतनी बंदिशें लगाकर मुझे सजाएँ दी जा रही हो इससे बेहतर होता कि मुझे गर्व में ही मार दिया जाता नारकीय जीवन तो नहीं जीना पड़ता स्त्री के रूप में जन्म लेना मानो एक बड़ा अभिशाप हो।                प्रियदर्शन

विकास की बात मत करना

विकास की बात मत करना वरना देशद्रोही कहलाओगे बीच सड़क पर मारे जाओगे कसमें-वादे सब भूल जाओ ये सब चुनावी जुमले थे नेता जी जो करते हैं तुम सिर्फ समर्थन करते जाओ विरोध किया तो देशद्रोही कहलाओगे बीच सड़क पर कुचलकर मार दिए जाओगे हिसाब-किताब की बात भी मत करना उनके कोप का भाजन बन जाओगे पता नहीं गुर्गे कब किधर से निकल आएंगे तुम्हारे हलक से जवान खींच ले जाएंगे नेताजी के कोप से बचना है तो आँख से अंधा कान से बहरा मुह से गुंगा बनकर तुम्हें हमेशा रहना होगा जो करते हैं उन्हें करते रहने देना होगा विरोध करोगे तो देशद्रोही कहलाओगे बीच सड़क पर मारे जाओगे सत्ता की ताकत का तुम्हें नहीं अंदाजा है ये मत समझो लोकतंत्र है कोई भी कुछ भी बोल सकता है तुम्हें लोक और तंत्र में अंतर समझना होगा अगर नहीं समझे तो फिर तंत्र का कोपभाजन बनना होगा।                      प्रियदर्शन कुमार

सपने

इन नन्हीं-सी आँखों ने बड़े-बड़े सपने पाले हैं कुछ कर गुजरने की इनमें चाहत के हिलोरें हैं लेकिन हालात के आगे ये बेबस नजर आते हैं दिखाई पड़ते हैं इनके टूटते हुए सपने गरीबी की थपेड़ों से चोट खा-खाकर ये टूटते हुए दिखते हैं भूख की तपिश में इनके जल गए सपने सारे हैं खेलने-कूदने की उम्र में पेट भरने की सोचते हैं जिस हाथ में कलम होने थे कि खुद की इबारत लिखते ये आज उस हाथ से ये कचरों में फेंक दिए गए जूठन को खाते हैं हमारे नीति-निर्माता विकास का दंभ भरते हैं यहां रोटी के दो टूकरे खाने को बच्चे तरसते हैं कितने संवेदनहीन हो गए लोग कि 'स्व' के संकीर्ण दायरे में सिमटे पड़े रहते हैं कि बच्चों के भविष्य को उजड़ते देखकर भी उनसे अपनी आँखें फेर लेते हैं कितने निर्लज्ज हैं कि लोग खुद को मानव कहलाने पर गर्व महसूस करते हैं।       प्रियदर्शन कुमार

बापू

बापू ! काश ! तुम जीवित होते, लेकिन, अच्छा है तुम नहीं हो, भारत की यह दूर्दशा तुमसे देखी नहीं जाती। जिस भारत का स्वप्न तुमने कभी देखा था, वह नहीं रहा। जिस राम-राज्य की कल्पना तुमने कभी किया था, वह रावण राज में बदल गया हर जगह अशांति ही अशांति है। जिस बोलने की आजादी के नामपर तूने एक विशाल आंदोलन खड़ा कर दिया था, आज वहीं हमसे छीना जा रहा है। हर जगह अपराधियों का तांडव, जाति-धर्म-मजहब के नामपर खून-खराबा, अब रोज की बात हो गई है। आधी आबादी अब भी भूखे सोने को मजबूर है। जिस ट्रस्टीशिप का नारा दिया था वह आज खत्म हो गया है। जोंक की तरह चिपक कर आम जनता का खून चूसने में पूंजीपति लगे हुए हैं बापू ! हम शर्मिंदा हैं कि तुम्हारे सपनों के भारत का निर्माण नहीं कर पाया तुम्हारे जन्मदिन पर देने के लिए हमारे पास आंसू के अलावा और कुछ नहीं है।                         प्रियदर्शन कुमार

किसान

कब तक बेआबरू होते रहेंगे किसान? कब तक रूकेगा यह आत्महत्या का सिलसिला? कब तक गोलियों का शिकार होते रहेंगें किसान? कब तक उन्हें जीते जी कब्र में बैठना पड़ेगा? कब तक जिंदगी और मौत से जूझते रहेंगे किसान? क्यों जिस्म(किसान) से जान(जमीन) अलग करने की कोशिश की जा रही है? कब तक उनके साथ इस प्रकार का घिनौना खेल खेला जाएगा? कब तक उन्हें अपने धैर्य की परीक्षा देनी पड़ेगी? कोई तो चरम बिंदु होंगे जहां जाकर यह सिलसिला थमेगा? कोई तो रास्ता होगा या फिर क्रांति ही उनकी उनकी समस्याओं का एकमात्र हल है? कैसे सरकार सरकार इतनी संवेदनहीन हो सकती है? क्यों किसानों को नक्सलवादियों का दामन थामने के लिए मजबूर कर रही है? क्यों सरकार उन्हें हथियार उठाने को विवश कर रही है?                प्रियदर्शन कुमार

आओ मिलकर दिया जलाएं

काव्य संख्या-150 ----------------------------------- आओ मिलकर दीया जलाएँ ----------------------------------- आओ मिलकर दीया जलाएँ अंधियारे को दूर भगाएँ रौशन करें इस जग को एक उज्ज्वल भविष्य का सपना साकार करे आओ मिलकर दीया जलाएँ । 'स्व के संकीर्ण दायरे से हम बाहर निकलकर 'पर' पर हम विचार करें मनमुटाव को दूर कर आओ मिलकर दीया जलाएँ । अंधकार में डूबी दुनिया को आलोक से उन्हें आलोकित कर खुशियों का संचार करें प्यार के दीपक हर दिल में जलाएँ आओ मिलकर दीया जलाएँ। साम्प्रदायिकता का विरोध करें शांति औ' सद्भाव की ओर बढ़े ऊंच-नीच का भेद भूलाकर मानवता का संदेश फैलाएँ आओ मिलकर दीया जलाएँ। चिंतन मनन अध्ययन कर ज्ञान का प्रसार करें अज्ञानता को जहान से मिटाने एक नया कदम उठाएँ आओ मिलकर दीया जलाएँ। मानवीयता का प्रसार करें सबका आदर औ' सम्मान करें रूढ़ियों का त्याग कर प्रगतशीलता की ओर कदम बढ़ाएँ आओ मिलकर दीया जलाएँ।                प्रियदर्शन कुमार

वो आईना

काव्य संख्या-153 ----------------------- वो आइना ----------------------- वो आइना, वो बेजान आइना, वो बेजुबान आइना वो निर्जीव आइना, जो हमारे सामने आते ही सजीव हो उठता है, जो हमारे हर रूप का हमें दर्शन कराता है, हम रोओगे वो भी रोएगा, हम हंसोगे वो भी हंसेगा, हम गुस्सा करोगे वो भी करेगा, हमारे चेहरे के हर एक्सप्रेशन से हमें साक्षात्कार करवाता है। वो आइना ही है, जो कभी झूठ नहीं बोलता है, हम आइने को तोड़ भी दे फिर भी टूटे हुए आइने का हर टूकड़ा हमारी सच्चाई को हमसे बयाँ करता रहेगा। वह आइना न केवल आइना है वरन् जीवन की सच्चाई है हमारे मन का, हमारे ह्र्दय का प्रतिबिंब है, हमारे अंदर उठ रहे हर तरंगों का जवाब है, जो हमें खुद को पढ़ने और खुद को समझने में मदद प्रदान करता है। आइना हमें सच्चाइयों के रास्ते पर चलना सिखाता है, आइना हमें खुद से आँखें मिलाना सिखाता है। आइना हमारे जीवन का प्रतिबिम्ब है, जो हमें, हमारे हर व्यवहार से परिचय करवाता है, जो हमारे होने का हमें अहसास कराता है, हमें इंसान बनना सिखाता है। वो आइना, बेजुबान आइना' जो न कुछ कहते हुए भी बहुत कु

सरकार

काव्य संख्या-151 ----------------------- तूने बहुत दिखाए अपने सत्ता का दंभ, तूने सत्ते की आर में खूब की है मनमानी, तूने बहुत फैलाएं हैं द्वैश खूब खेल खेले हैं तूने साम्प्रदायिकता की, कभी गाय तो कभी कभी घर वापसी की कभी जात-पात की तो कभी राम की राजनीति की, विकास के मुद्दे से ध्यान भटकाकर वर्षों से उलझाए रहे तूने भोली-भाली जनता को, तुम्हारे उलझनों में अब न आएगी जनता, तुम्हारे इन झांसों में कभी न फंसेगी जनता, बहुत किए हैं जनता के साथ तूने भावनात्मक अत्याचार, अब जनता भी समझ गई है तुम्हारी बांटो और राज करो की नीति को, बहुत पढ़ और सुन लिया है तुम्हारे विकास  की यह गाथा, भर गया है मन जनता का तुमसे और तुम्हारी नीतियों से, जनता ही तय करेगी तुम्हारी अब नियति, अब हो गई है शुरू तुम्हारी उल्टी गिनती अब बज चुकी है रणभेरी अब होगी आर या पार की लड़ाई।                         प्रियदर्शन कुमार

झूठ ही सही, लेकिन तुम बोलो

काव्य संख्या-158 ------------------------ झूठ ही सही, लेकिन तुम बोलो --------------------------------------- झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो अच्छा लगता है सुनने में मुझे। अब तो आदत-सी पड़ गई है। झूठ के साथ जीना सीख लिया है मैंने तुम बोलो कि सत्ता में आने के बाद सबको रोजगार दूँगा तुम बोलो कि सबको रहने के लिए छत उपलब्ध करवाऊँगा तुम बोलो कि किसी को भूखा नहीं सोने दूँगा तुम बोलो कि किसी बच्चे की सांसे नहीं छीनी जाएगी तुम बोलो कि किसी के आँखों में आँसू नहीं होने दूँगा तुम बोलो कि किसानों को आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ेगी तुम बोलो कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि जातिवाद और साम्प्रदायिकता से मुक्त भारत का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि समता आधारित समाज का निर्माण करूँगा तुम बोलो कि सामाजिक आर्थिक राजनीतिक न्याय उपलब्ध करवाऊँगा झूठ ही सही लेकिन तुम बोलो अच्छा लगता है सुनने में मुझे अब तो आदत-सी पड़ गई है झूठ के साथ जीना सीख लिया है मैंने।    प्रियदर्शन कुमार