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नव-वर्ष

नव वर्ष ===== नव वर्ष नयी उम्मीद नये उमंग नयी सोच नये विचार नया आगाज नये लक्ष्य नया स्वप्न नये इरादे नयी कसमें नये वादे के साथ नया करने नया पाने के लिए बढ़े हम बढ़े सब इसी के साथ नूतन वर्ष का स्वागत करें हम। प्रियदर्शन कुमार

आशा

आशा ============== धूंधला-सा हो गया हूँ मैं धूंधली-सी हो गई है मेरी छाया ढ़ल गया है दिन छा गया है अंधेरा इंतजार है उसे भी इंतजार है मुझे भी ये दिन भी गुजर जाएगा हमारे भी आएंगे अच्छे दिन समय-समय की बात है दिन होता नहीं है हमेशा एक समान हारना नहीं सीखा है हमने लड़ रहा हूँ मैं खुद से लड़ रहा हूँ मैं समय से लड़ने के सिवाय कुछ भी नहीं है मेरे बस में मानकर चलता हूँ मैं मेहनते बेकार नहीं जाती यह रंग तो लाएगी थोड़ी देर से ही सही आशा है मुझे निराशा नहीं मुझे। प्रियदर्शन कुमार

अतीत बनाम वर्तमान

अतीत बनाम वर्तमान ====================================         अतीत और वर्तमान के बीच अपनी-अपनी प्रमुखता को लेकर बहस चल रही थी। वर्तमान ने अतीत से कहा कि तुम मेरे विकास में बाधक हो। मैं जब भी तुम्हें भूलाने की कोशिश करता हूँ और अपने स्वतंत्र अस्तित्व की बात करता हूँ तथा भविष्य को संवारने की कोशिश करता हूँ तो तुम मेरे कदम को पीछे खींचते हो।मैं तुमसे कोई रिश्ता नहीं चाहता। अतीत ने नाराजगी जाहिर करते हुए वर्तमान से कहा कि तुम मेरे उपर गलत आरोप लगा रहे हो। हां, यह सच है कि मैं हमेशा तुम्हारे पीछे लगा रहता हूँ। तुम मुझे लाख भूलाने की कोशिश करते हो लेकिन मैं ऐसा नहीं होने देता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तुमसे जलती हूँ या तुम्हारे प्रगति के मार्ग में बाधक हूँ। मैं इसलिए तुम्हारा साथ नहीं छोड़ता हूँ कि कहीं तुम्हारे अंदर घमंड न आ जाए जो कि किसी भी मनुष्य के विनाश का कारण होता है। तुम्हारे अंदर जो परिवार और समाज के प्रति आदर का भाव था, संवेदना और सहानुभूति का भाव था, सुख-दुख में सहभागिता थी, वो खत्म न हो जाए या तुम भूल न जाओ। अक्सर लोग ऊंचाइयों पर जाने के बाद परिवार और समाज से कट जाते

किसान

काव्य संख्या-207 =========== किसान =========== मैं किसान हूँ मेरा काम है खेती का रहने के नाम पर मेरे पास एक घर है जो फूस का बना है बरसात के दिनों में टप-टप पानी टपकता है गर्मी के मौसम में सूर्य की किरणें झांकती हैं एक टूटी हुई खाट कुछ बर्तन पहनने के नाम पर फटा-चिथरा कपड़ा हैं जो मेरे तन को ढकने में असमर्थ है सर पर पगड़ी है जो स्वाभिमान का प्रतीक है एक लाठी है जो सहारा देने का काम करता है स्वप्न भी छोटे आकांक्षाएं भी छोटी-सी मेरा फसल अच्छा हो अच्छी उपज हो भरी दोपहरी हो बरसात हो या फिर हो शीतलहर हर स्थिति में मैं अनाज पैदा करता हूँ ताकि पेट की आग को शांत कर सकूं अपनी नहीं, दूसरों की अपने लिए तो कुछ भी नहीं बचता अपने लिए बचता है तो केवल ऋणजाल महाजनों का कभी न चुकने वाला मजदूरी कर पेट पालता हूँ अपनी आयु से अधिक का दिखता हूँ पैरों में छाले पड़े हैं मैं समाज के हाथों का खिलौना हूँ जिसके जज्बातों से सब खेलते हैं लोकतंत्र के नाम पर मुझे बस वोट देने का अधिकार है ताकि लोकतांत्रिक देश में रहने का अहसास हो सके सवाल पूछने का अधिकार नहीं है सवाल पूछने प

बेटा-बेटी

काव्य संख्या-106 ===================== बेटा-बेटी ===================== समय की परिवर्तनशीलता को देखो कभी पराई समझी जाती थी बेटी घर की मेहमान होती थी बेटी घर से बिदा होती थी बेटी बेटी में जन्म लेना अपशकुन समझी जाती थी बेटी माँ-बाप के आँखों का तारा था बेटा कुल का दीपक था बेटा सुख-दुख का भागी था बेटा वंश को आगे बढ़ाने वाला था बेटा माँ-बाप के मोक्ष का माध्यम था बेटा दिन गुजरे युग बदला रिश्तों की अहमियत बदली परिवार का दर्शन बदला अब मेहमान होता है बेटा घर का पराया होता है बेटा शादी के बाद घर से बिदा होता है बेटा माँ-बाप के आँखों का आँसू होता है बेटा दुख का कारण होता है बेटा अपनी होती है बेटी दुख-सुख की भागी होती है बेटा माँ-बाप के बुढ़ापे की लाठी होती है बेटी।                         प्रियदर्शन कुमार

टूटते पत्ते

टूटते पत्ते ====================== वृक्ष से जब पत्ते टूटकर अलग होते हैं पत्ते का अस्तित्व खत्म हो जाता है। जबतक पत्ते वृक्ष से जुड़े रहते हैं, वृक्ष बूढ़ा होकर भी, अपनी क्षमता तक, पत्तों का पालन-पोषण करता है। मगरूर पत्ता, अपने यौवन से चूर होकर पेड़ से अलग हो जाता है। वह यह नहीं सोच पाता है कि उस पेड़ का क्या होगा, जिसने उसका पालन-पोषण किया है उसके दर्द का उसे तनिक भी अहसास नहीं पत्ते को अलग होते देख वृक्ष मुरझाने लगता है। पत्ते को लगता है, उसके लिए अब वृक्ष की कोई अहमियत नहीं है। वह समझने लगता है कि वृक्ष की सुंदरता उसके कारण ही है लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि उसके चहरे पर मुस्कान का कारण वह वृक्ष है वह जो भी है, जैसा भी है, उस वृक्ष के कारण है। वह जब भी पहचाना जाएगा अपने वृक्ष से ही। लेकिन मगरूर पत्ता अपने अस्तित्व के लिए भटकता रहता है, दर-बदर की ठोकरें खाते रहता है और अंत में टूटकर बिखर जाता है क्योंकि अपने सृजक की आत्मा को पीडि़त कर सृजित कैसे खुश रह सकता है।                   प्रियदर्शन कुमार

जीवन

जिंदगी =========== जीवन में न जाने कितने ही दौर आते हैं कभी सुख कभी दुख कभी हँसना कभी रोना कभी हैरान कभी परेशान कभी अच्छा कभी खराब कभी भला कभी बुरा कभी मिलना कभी बिछड़ना कभी अपनो का साथ कभी परायों का कभी प्यार कभी वेदना कभी सम्मान कभी अपमान कभी आँसू कभी मुस्कान कभी सफलता कभी असफलता कभी आशा कभी निराशा कभी यश कभी अपयश कभी हार कभी जीत कभी उपर कभी नीचे बस, यूं ही कट जाती है इंसान की सारी जिंदगी धरा का धरा रह जाता है सबकुछ यहीं पर ठहर जाती है जिंदगी सांसों की डोर थमने से।         प्रियदर्शन कुमार

अहसास

अहसास =============== मैं हँसता हूँ जब सबके बीच होता हूँ। मैं रोता हूँ जब अकेला होता हूँ। सबका साथ है फिर भी लगता नहीं कोई पास है। भीड़ में हूँ फिर भी अकेला हूँ। चेहरे पर हँसी है फिर भी पीड़ा में हूँ । मैं वो झरना हूँ जो चट्टानों से चोट खाकर भी हमेशा मुस्कुराता रहता हूँ। मैं उस सागर की तरह हूँ जिसकी लहरें चट्टानों से बार-बार चोट खाती हैं लेकिन हार नहीं मानती। खुशियाँ नहीं सबके नसीब में मैं दुख के सहारे ही जीता हूँ। मैं हूँ बस, यह एक अहसास है अहसास के अलावा और कुछ नहीं। प्रियदर्शन कुमार

बहू

माँ लगाती झाडू-पोछा बहुएं बैठती हैं सेज पर कितना विहंगम दृश्य लगता है कोई जाकर पुछे उन बेशर्मों से लज्जा क्या नहीं आती है उन्हें खुद को पढ़ी-लिखी की दावा करते गौरव से हमेशा चूर रहते खुद को ऊँचे खानदान का कहते संस्कार-उंसकार की बातें करते माँ को गाली-गलौज करते खुद उनके टुकड़ों पर पलते उन्हें ही आँख दिखाने से नहीं चूकते हैं माँ की बातें लगती है उन्हें जली-भुनी उनके द्वारा अर्जित सम्पत्ति लगती है उन्हें अच्छी माँ की सेवा करने से जी चुराते हैं वो माँ के मरने के बाद सम्पत्ति के बँटवारे के लिए माइके से पिता-भाई-सगे-संबंधियो को बुलाते हैं वो सास-बहू के झगड़ों में पीसते रहते बेटे बेचारे दो बात उधर से सुनते, दो बात इधर से सुनते पेंडुलम की तरह दोनों के बीच डोलते रहते आस-पड़ोस वाले टकटकी लगाएँ बैठे रहते कहीं कुछ मसाला मिल जाए उन्हें आगे क्या हुआ, कौन किसको क्या बोला इसी ताक-झांक में हमेशा रहते घर-घर की यही कहानी है कितनी सच्ची कितनी झूठी यह मेरी कहानी है सब अपने-अपने घर में झांककर देखो कहीं पर ज्यादा कहीं पर कम पर यह सच्ची मेरी कहानी है तुम्हें बुरा लगे या भला लगे

तू जिंदगी को मत कोस तू मत हो उदास यूं बैठ

तू जिंदगी को मत कोस तू मत हो उदास यूं बैठ ----------------------------- तू जिंदगी को मत कोस तू मत हो उदास यूं बैठ तू कर्म कर तू कर्म कर तू फल की चिंता मत कर तू नित अपने पथ पर आगे बढ़ता चल बढ़ता चल तू अपने लक्ष्य की ओर खुद को आत्मकेंद्रित कर तू चिंतन कर, मत चिंता कर तू कर्तव्य पथ पर एकनत होकर आगे बढ़ता चल बढ़ता चल रास्ते में बाधाएँ आती हैं और आती ही रहेंगी रूकना नहीं ठहरना नहीं तू इन बाधाओं को तोड़ते हुए आगे बढ़ता चल बढ़ता चल तू मत सोच कि जिंदगी तुम्हें किस मुकाम पर ले जाएगी तू खुद को समय पर छोड़ दे वो खुद ब खुद फैसला कर देेगी तू मत बैठ नियति के भरोसे तू मत खुद भाग्य का फैसला कर तू मत हो निराश जिंदगी से जो होगा अच्छा ही होगा तू चेहरे पर हमेशा मुस्कान रख तू मत उलझ जिंदगी की उलझनों में जिंदगी का हिसाब-किताब टेढ़ा-मेढ़ा है तू चट्टान की तरह खड़ा रह तू खुद को मत टूटने दे तू खुद के हौसले को बुलंद कर इतना कि सफलता तुम्हारे कदम चूमे तू कर्म कर तू कर्म कर तू नित अपने पथ पर आगे बढता चल बढ़ता चल।               प्रियदर्शन कुमार

खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं

काव्य संख्या-202 =================== खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं =================== खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं उसे समझने की कोशिश करो। सबकुछ लफ्जों में बयां नहीं होता ईशारों में समझने की कोशिश करो। देश की आवो-हवा को महसूस करो किस तरफ बह रही है हवा। बहुत गर्म है देश का माहौल कुछ भी करने से पहले सोच लो। बच के तुम यहां रहना कभी भी सत्ते का शिकार हो जाओगे। धीरे से तुम सांसे लेना कहीं सुन न ले कोई। घूम रहे हैं सरकार के चमचे उन चमचों से तुम बचकर रहना। हर तरफ यहां पर खड़ी हैं जाति-धर्म-मजहब की दीवारें। रखी जा रही हैं तुम पर भी नजरें कितना भी नजरें चुराने की कोशिशें करो। खामोशियां भी कुछ कह रहीं हैं उसे समझने की कोशिश करो।                    प्रियदर्शन कुमार