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हालात

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हालात(01/07/2017) =============== एक लड़का  जो रोज की तरह सुबह उठता है अपना नित्य कर्म करता है उसकी मां उसके लिए खाना बनाती है लड़का विद्यालय जाने के लिए तैयार हो जाता है मां उसे खाना खिलाती है और हाफटाइम में लंच करने के लिए भी  उसके थैले में लंचबॉक्स रख देती है लड़का विद्यालय जाते समय  मां को प्रणाम करता है मां उसके मुख चुमती है और उसके सर पर हाथ फेरती उसके होंठों पर मुस्कान है और अंदर डरी हुई है लड़का चला जाता है मां बेटे के आने इंतजार करने लगती है उसका मन बेचैन होने लगता है रोती है चुप होती है और खुद को समझाती है कोई नहीं , सब कुछ अच्छा होगा मेरा बेटा विद्यालय से छूटते ही मेरे पास आ जाएगा। जैसे ही अपने बच्चे को आते देखती है मां मानो उसे एक नई जिंदगी मिल गई हो उसके आंखों से खुशी के आंसू निकलने लगते हैं मां बेटे को गले लगाती  फिर उसके मुख को चुमने लगती है अपने आंचल में उसे छुपा लेती है मानो; जैसे मां से उसके बच्चे को  कोई अलग कर रहा हो हर बार उसे लगता है मैं अपने बच्चे अंतिम बार मिल रही हूँ बेटा पूछता है अपनी मां से मां ! तुम रो क्यों रही हो  मैं हमेशा की तरह समय पर विद्यालय से आ ही तो ज

लोकतंत्र का चीरहरण

लोकतंत्र का चीरहरण (30/06/2017) ========================= लोकतंत्र का चीर-हरन हो रहा , मुकदर्शक बन सब देख रहा ! मुख से विरोध का स्वर नहीं निकलता, जैसे सबको सांप सूँघ गया ! अरे अब तो अपनी चुप्पी तोड़ो , लोकतंत्र की मंदिर से  इन दलालों को बाहर निकालो ! संसद को इसने अखाड़ा बना दिया , इसने अपनी जिम्मेदारी से मुह मोड़ लिया ! जनता को क्या-क्या सपने दिखाया था, उन सपनों को चकनाचूर कर दिया ! समावेशी विकास का नारा देकर  खुद कोरपोरेट घरानों का रखैल बन गया!                                 प्रियदर्शन कुमार

मैं स्वप्न में ही जीना चाहता हूं (24/06/2017)

मैं स्वप्न में ही जीना चाहता हूँ ------------------------------------- अब स्वपन में ही  रहने की इच्छा है मुझे वास्तविक दुनिया की भयावह तस्वीर से  डर लगता है मुझे। भौतिकता की चाह ने खत्म कर दिया सारे संबंधों को बना दिया लोगों को व्यक्तिवादी इसलिए स्वपन में ही रहने की इच्छा है मुझे। कांप जाते हैं रुह मेरे दुनिया की आवोहवा देखकर मिलती नहीं शांति मुझे हर वक्त संत्रास-कुंठा में जीता हूँ मैं। स्वप्न में ही मिलते हैं मुझे मेरे कल्पना की दुनिया जहाँ न घृणा-ईष्या-द्वैष  और न स्वार्थीपन है जहां सिर्फ प्रेम-स्नेह-अपनापन और सद्भावना है। इसलिए स्वपन में ही रहने की इच्छा है मुझे मैं स्वप्न में ही जीना चाहता हूँ। प्रियदर्शन कुमार

हां, उन्होंने जीना सीख लिया है

चाह विश्वगुरु बनने की

काव्य संख्या-228 =============== चाह विश्वगुरु बनने की =============== चाहत विश्वगुरु बनने की, दिमाग नहीं एक पैसे की। बेवकूफों का जमावड़ा है, बिना सोचे काम करता है। अंजाम की परवाह नहीं उन्हें, खामियाजा देश भुगतता है। अब वो भी आंखें दिखाने लगे, जो कभी हमें अपना मानते थे। एक-एक कर छूटते चले जा रहे हैं, हमारे संबंध उनसे टूटते जा रहें हैं। अब भी समय है खुद में परिवर्तन लाओ, अपनों को अपने साथ लाने का काम करो। न तुम्हें अपने पड़ोसियों से बनती है, न देश की अपनी जनता से बनती है। खुद पर इतना गुरुर करना भी ठीक नहीं, क्योंकि तुम्हारी हैसियत इस लायक नहीं। बराबरी का दर्जा दो अपने पड़ोसियों को, डिक्टेरशिप छोड़ सबको साथ लेकर चलो। तभी  बात दुनिया  सुनेगी  तुम्हारी, सारी दुनिया इज्जत करेगी तुम्हारी।                          प्रियदर्शन कुमार