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मत बांधो मुझे

मत बांधो मुझे (31/03/2017) =================== मत बांधों मुझे माया-मोह के बंधन में। मैं आजाद होकर उड़ना चाहता हूँ उनमुक्त गगन में। चाहता हूँ छू लेना उस चरम बिंदु को। चाहता हूँ देख लेना अपने सामर्थ्य और अपनी सीमाओं को। चाहता हूँ ऐसा कुछ कर जाना कि दुनिया मुझे मेरे नाम से जाने मेरे मरने के बाद भी मुझे सदा याद रखें। बस यहीं एक अभिलाषा है मेरी और नहीं चाहता मैं कुछ भी।                 प्रियदर्शन कुमार

जिंदगी इसी का नाम है

जिंदगी इसी का नाम है  (30/03/2017) ========================= मैं हैरान हूँ यह सोचकर कि मैं कहां जा रहा हूँ नियति मुझे ले जा रही है या मैं नियति के कारण जा रहा हूँ इसी के मंथन में रहता हूँ पहुंच नहीं पाता हूँ मैं निष्कर्ष तक रोज नये-नये सवाल उभर कर आते हैं मेरे सामने मैं इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने में लगा रहता हूँ यह गुत्थी है कि सुलझने की बजाय और उलझती ही चली जाती है गांठ-पर-गांठ पड़ता ही जा रहा है सोचता हूँ कुछ, कर जाता हूँ कुछ और हो जाता है कुछ जिंदगी को समझना बहुत-ही जटिल है जिंदगी को अपनी मर्जी से जीना अपनी शर्तों पर जीना बहुत-ही मुश्किल है हर पग पर समझौता करना पड़ता है। सोचता हूँ कि क्या जिंदगी इसी का नाम तो नहीं।                         प्रियदर्शन कुमार

दिल और दिमाग

दिल और दिमाग (,29/03/2017) ------------------------------------------ दिल और दिमाग के बीच निरंतर जंग चलता रहता है जो हमारी निर्णयन क्षमता को प्रभावित करता है। कभी दिल दिमाग पर भारी तो कभी दिमाग दिल पर भारी पड़ता है। जबकि वास्तविकता है कि जिंदगी जीने के लिए दोनों चीजों की आवश्यकता है दिल और दिमाग के बीच सहसंबंध होना चाहिए न तो दिल दिमाग का स्थान ले सकता है और दिमाग दिल का । लोग इन्हीं दोनों के पेशोपेश में फंसा पड़ा रहता है कि कहां दिल से काम लिया जाए कहां दिमाग से काम लिया जाए। किसी भी संबंधों की नैरंतर्य को बनाएं रखने के लिए इन दोनों के बीच सामंजस्य की आवश्यकता होती है। इन दोनों के बीच तारम्यता का बिगड़ना किसी भी काम के लिए या फिर संबंधों के बीच तनाव के लिए उत्तरदायी होता है।               प्रियदर्शन कुमार

पीड़ित जनता की आवाज़

पीड़ित जनता की आवाज़(29/03/2018) ----------------------------------------------------- हे राजन् ! तुम्हें मैनें अपना राजा चुना, तुमसे मुझे बड़ी अपेक्षाएं थी। मैनें बड़े-बड़े सपने देखें थे, कि तुम उन सपनों को पूरा करोगे। तुम मेरे दुखों को हरोगे, तुम मेरे आंखों के आंसूओं को पोछोगे। मेरे होठों पर फिर से हंसी लाओगे। भूखें को भोजन, प्यासे को पानी, नंगे के तन पर कपड़ा, बेघर को घर दोगे। समाज में शान्ति और सौहार्द्र की स्थापना करोगे। लोकतंत्र से उठ चुके मेरे विश्वास को फिर से बहाल करोगे। लेकिन, ये क्या किया तुमनें? मेरी की भावनाओं के साथ खेला, मेरे सपनों का चकनाचूर कर दिया, मुझे सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया। मैंने हक माँगा तो तुमने गोली चलवाया रोजगार माँगा तो साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिया मैं पूछता हूँ तुमसे, आखिर मेरा अपराध क्या था, किसकी सजा मुझे मिली है? बस, यहीँ न कि तुमसे अपेक्षाएं रखी थी मैनें, कुछ सपनें देखें थे मैनें, उसकी इतनी बड़ी सजा, हे राजन् ! धिक्कार है धिक्कार है तुम पर।                    प्रियदर्शन कुमार

डोमिनोज़

डोमिनोज़ (26/03/2017) ================= कल मैं डोमिनोज में गया हलांकि मैं खुद नहीं गया ले जाया गया, अब तक सिर्फ डोमिनोज का नाम ही सुना था। ऐसा लगा, जैसे मैं भारत से इंडिया में पहुंच गया। वहां की बिल्कुल अलग संस्कृति थी एक चकाचौंध वाली दुनिया एक अंजान-सा चेहरा लिए मैं इधर-उधर देखता रहा एक आजीब-सी कोलाहल थी हलांकि सभ्य जन इसे 'इन्ज्वाय' का नाम देते हैं। मैं उस संस्कृति को देखकर स्तब्ध रह गया। बस, यहीं सोचने लगा कि ये कैसा समाज है ये कैसी दुनिया है यहां के रहनेवाले लोग कैसे हैं जहां एक तरफ गरीबों-मजलूमों का जोंक की तरह खून चूसते हैं और अपने घर भरते हैं होटलों में अय्याशी करते हैं वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो भूखे पेट सोने को मजबूर हैं फूट-पाथ पर सोते हैं बच्चे सड़क के बगल में होटलों द्वारा फेंक दिए गए जूठन को खाने को मजबूर हैं ये कैसी विषमता व्याप्त है।               प्रियदर्शन कुमार

जा कोरोना जा

काव्य संख्या-225 =========== जा कोरोना जा =========== जा कोरोना जा निर्धन के आंखों में तू मत आंसू ला जा कोरोना जा। गरीबी रूला रही है अपनों की जुदाई रूला रही है अब तू भी मत रूला जा कोरोना जा। सब कुछ छिन गया है अब केवल सांस बचा है उसे भी मत छिन तू जा कोरोना जा। भूख से बच्चे बिलख रहे हैं दो जून की रोटी खाने को तरश रहे हैं कुछ खाने को पास नहीं है चूल्हे पर मकड़ी का जाला है छिन गया सुख चैन हमारा है अब तू हमें और न तड़पा जा कोरोना जा। रोजगार छिन गया जो जीने सहारा था दो पैसे बचा रखे थे सारा खत्म हो गया तेरे एक आने से खाने के लाले पड़ गए अब और न ले तू मेरी अग्नि परीक्षा जा कोरोना जा। कभी सुरज की तपिश कभी बाढ़ का प्रकोप कभी भूकंप का सामना अब तुम्हारा प्रकोप सहन नहीं होता जा कोरोना जा। उपर से फरमान आया है घर से बाहर नहीं निकलना है अब तेरे ही हाथों में जीवन हमारा है अब तू ही हमें बचा सकता है जा कोरोना जा। प्रियदर्शन कुमार

विकास का कैसा नारा है

विकास का कैसा नारा है (25/03/2017) ========================== यह विकास का कैसा नारा है जहां लाखों लोग भूखे सोते हैं बच्चे एक निबाले को तरसते हैं खुले आसमान के नीचे सोते हैं किसान आत्महत्या करते हैं मजदूरों के रक्त चूसे जाते हैं बेरोजगारी बढ़ती जाती है अमीर-गरीब के बीच की खाई निरंतर बढ़ती जाती है चंद लोगों के पास सारी सम्पति संकेन्द्रित होती जाती है समाज में विसंगति फैलती जाती है सब जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है मंत्री से लेकर संत्री तक जुमलेबाज़ी करते हैं जहां विकास के नाम पर आकड़ों के खेल चलते हैं वास्तविकता से आंख चुराया जाता है विकास की बड़ी-बड़ी बातें किया जाता है।                                    प्रियदर्शन कुमार

चेतना

चेतना (24/03/2017) =============== हमारी प्रगतिशील चेतना जिसमें प्रगति तो हुई लेकिन चेतना शुष्क पड़ गई हमारा समाज जो हमें कभी अनुशासित करने का काम करता था नैतिकता का पाठ पढ़ाता था आज वह व्यक्ति-विशेष का पिछलग्गू बनकर रह गया है। हमारे अंदर न तो सुनने की क्षमता है और न किसी की बात को सहन करने शक्ति। घर के लोगों के साथ तो हम असहनशील हैं लेकिन बाहर जाकर औरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाते हैं अपनी मां की इज्जत तो नहीं करते लेकिन बाहर जाकर हम मां अम्मा आंटी कहकर दूसरे को संबोधित करते हैं भाई-भाई में तो नहीं बनता लेकिन बाहर जाकर हम भाईचारे की बात करते हैं घर के भगवान्(मां-बाप) का तो अनादर करते हैं लेकिन मंदिरों में पत्थरों की पूजा करते हैं। फूट-पाथ पर लोग भूखा सोते हैं लेकिन मंदिरों में ५६ भोग पत्थरों पर चढ़ाते हैं हाय रे दुनिया तेरी गजब कहानी है हमारे घर के चुल्हे-चौके तो बंद हैं लेकिन होटल-रेस्टोरेंट में जाकर पिज़्ज़ा-बर्गर का अॉडर देते हैं इस प्रकार हम खुद को आधुनिक कहलाने की कोशिश करते हैं और हम खुद को प्रगतिशील मानव चेतनता होने की बात करते हैं।                   

मैं अन्नदाता हूं

मैं अन्नदाता हूं (23/03/2017) =================== मैं अन्नदाता हूँ वह अन्नदाता जो देश के सभी लोगों के लिए अनाज पैदा करता हूँ सबका पेट भरता हूँ कड़ाके की ठंड हो या फिर चिलचिलाती धूप हो एक नत होकर परिश्रम करता रहता हूँ ताकि किसी को भूखा न सोना पड़े बदले में, पारितोषिक के रूप में मुझे मिलता है आंखों में आंसू, खुद का एवं परिवार का पेट पालने में अक्षम होना महाजनों का ऋण न चुका पाने की स्थिति में उनसे गाली सुनना और अंत में आत्महत्या के रास्ते का चुनाव करने के लिए विवश होना।                             प्रियदर्शन कुमार

मुक्ति

मुक्ति (23/03/2017) ============== भगत-सुखदेव-राजगुरु आज फिर तुम्हारी जरूरत आ पड़ी तब तुमने विदेशी आक्रांताओं से देश को मुक्ति दिलाया था आज तुम्हें , देश के आंतरिक आक्रांताओं से मुक्ति दिलाना है। हर वर्ष तुम्हारी पूण्यतिथि तुम्हारे त्याग-तपस्या-बलिदान से निर्जीव पड़ी जनता में फिर से जान फूंकती है कुछ कर गुजर जाने की उसमें अहसास कराती हमें झकझोरते हुए कहती है अगर देश बचाना है तो उठ खड़े हो और समूल दुश्मनों का नाश करो चाहे इसकी कीमत जो तुम्हें चुकानी पड़े।    प्रियदर्शन कुमार

शिक्षित होने की पहचान

शिक्षित होने की पहचान (22/03/2018) ========================== जब छोटा था / तो मैं अनजाना था / सबके यहाँ आना-जाना था / जब बड़ा हुआ तो जाना / हम हिन्दू हैं वो मुसलमान / हम ब्राह्मण हैं वो शूद्र / हां, वास्तव में, यहीं है मेरे / शिक्षित होने की पहचान। प्रियदर्शन कुमार

रोज आती हो मेरे सपनों में

गजल (22/03/2017 =================== रोज आती हो तुम मेरे सपनों में रोज करती हो तुम प्यार की बातें। मैं भी सपनोँ को हकीकत मानकर रोज खो जाता हूँ तेरे ख्यालों में। मैं यहां तक भूल जाता हूँ कि सपने तो सपने होते हैं। मुझे खुशी है इस बात की कि कम-से-कम रोज आती तो हो तुम मेरे सपनों में। खुशियों के चंद लम्हें गुज़ार जाती हो तुम मेरे साथ सपनों में। हरेक पल गमों में ही डुबा रहता हूँ मैं बस तेरे बारे में सोचता रहता हूँ मैं। रोज सोचता हूँ  मैं शायद यह सपना भी कभी हकीकत बन जाए। शायद कि हमेशा के लिए लौटकर मेरे पास आ जाए तुम। रोज आती हो तुम मेरे सपनों में रोज करती हो तुम प्यार की बातें।                        प्रियदर्शन कुमार

हम-तुम

गजल (21/03/2017) =================== वर्षों बाद मैं गजल लिख रहा हूँ फर्क बस इतना है तब तुम्हारे प्यार में  लिखता था अब तुम्हारे गम में लिख रहा हूँ। आज फिर याद आ गए वो दिन वो सारी बातें छा गए मन मंदिर पर। अब बस इतनी-सी ख्वाहिश है मेरी एक बार फिर लौट आए वे पुराने दिन कि मिलकर एक हो जाएं हम फिर उसी पेड़ की छांव में चले जहां कभी घंटो बैठ कर किया करते थे प्यार की बातें। न जाने कितने पहर गुजर जाते कि जिसका पता नहीं रहता था। चलो सारे गिले-शिकवे भूल जाए कि सारी दूरियां हम खत्म कर दें और समा जाए एक-दूजे में।         प्रियदर्शन कुमार

मैं प्यार के गीत कैसे गाऊं

मैं प्यार के गीत कैसे गाऊं(19/03/2017) ========================== तुम्हीं बताओं प्यार के गीत कैसे गाउँ मैं ? जहां की सत्ता निश्छल हाथों में जाती हो, जहां समाज में असहिष्णुता का माहौल फैलाने की कोशिश की जाती हो, तुम्हीं बताओं प्यार के गीत कैसे गाउँ मैं ? जहां लोग डर-डर के जीने को मजबूर हो जाते हों जहां धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश की जाती हो, तुम्हीं बताओं प्यार के गीत कैसे गाउँ मैं ? जहां मंदिर-मस्जिद का राग अलापी जाती हो जहां की जन्म-भूमि से से लोगों को अलगाने का फरमान जारी कर दी जाती हो तुम्हीं बताओं प्यार के गीत कैसे गाउँ मैं ? जहां लोगों के आंखों में रक्त आ जाए जहां के लोग एक- दूसरे के रक्त के प्यासे हो जाए तुम्हीं बताओं प्यार के गीत कैसे गाउँ मैं ? प्रियदर्शन कुमार

विकास की आंधी

विकास की आंधी (18/03/2017) ====================== यह विकास की कैसी आंधी आयी रे जिसने निर्धन के आंखों में आंसू लायी रे जहां अन्नदाता अन्न के बिना भूखे पेट सोने को विवश हो जाते हैं वहीं पैसे वाले उसी अन्न से खलते हैं। लोकतंत्र की बातें करतें हैं, लेकिन लोक को ही लूटने में तंत्र लग जाते हैं। यह 'सबका विकास' का कैसा नारा जहां आम लोग छूट जाते हैं और खास लोगों के विकास हो जाते हैं। अमीर,और अमीर हो जाते हैं गरीब,और गरीब हो जाते हैं मजदूर जी-जान लगाकर मेहनत करते हैं फिर भी उनके बच्चे भरपेट भोजन को तरसते हैं। नेता चुनाव में बड़ी-बडी बातें करतें हैं सत्ता में आते-ही सब भूल जाते हैं। कहां गया स्वास्थ्य कहां गयी शिक्षा कहां गया गरीबी उन्मूलन कहां गया रोजगार देने के वादे सत्ता आते ही ये सबकुछ भूल जाते हैं। मोटे-मोटे तनख्वाह उठाते हैं फिर भी पेट नहीं भरता तो घोटाला करने में लग जाते हैं।                  प्रियदर्शन कुमार

क्रांति नहीं तो और क्या करें (17/03/2017)

क्रांति नहीं तो और क्या करें ========================= भूख से बिलखती जनता की थाली में रोटी की बजाय योजनायें परोस दी गई हो तो बताओं वह क्रान्ति नहीं तो और क्या करें? किसान के ऋण को माफ करने की बजाय कॉरपोरेट के ऋण को माफ कर दिया जाए तो बताओं वह क्रान्ति नहीं और क्या करें? बेरोजगारों को रोजगार देने की बजाय जुमले दिए जाए तो बताओं वह क्रान्ति नहीं तो और क्या करें? छात्रों को बोलने की आजादी देने की बजाय उसपर प्रतिबंध लगाने का काम निजाम करें तो बताओ वह क्रान्ति नहीं तो और क्या करें? अपराधी भ्रष्टाचारी रेपिस्टो साम्प्रदायिक ताकतों को राजनीति में शरण और संरक्षण मिले तो बताओं वह क्रान्ति नहीं तो और क्या करें? आदिवासियों को जड़-जंगल-जमीन से बेदखल कर दिया जाए बजाय कि उसे संरक्षण दिया जाए तो बताओं वह क्रान्ति नहीं तो और क्या करें?                                   प्रियदर्शन कुमार

सिसक रही है भारत माता (17/03/2017)

काव्य संख्या-171 ----------------------------------- सिसक रही है भारत माता, अपने ही लालों की करनी से / हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, पालन-पोषण में, कभी न की अंतर उसने / आखिर क्या परवरिश में कमी रह गई, कि खून के प्यासे हो गए एक-दूजे के / भाई पर भाई टूट रहे हैं, रिश्ते-नाते सारे छूट रहे हैं / कभी मनाते थे साथ मिलकर, होली-ईद-रमजान-दीवाली, आज बन गये हैं हम अनजाने / दो सौ बरस बंधी रही माँ, गुलामी की जंजीरों से / माँ को मुक्त कराने की खातिर, हँसते-हँसते चढ़ गए थे शूली पर, माँ के लाखों सपूतों ने / कैसा समय का कालचक्र है, कि आज सतायी जा रही है माँ, अपने ही लालों के हाथों से / द्रवित हो रही है उसकी आत्मा, ऐसे कुलंगारो से / खून से रंगने चल पड़े हैं, माँ के ममता की आंचल को / सूख गया है आँखों का पानी, निर्लज्ज बन गए सारे सपूत / सिसक रही है भारत माता, अपने ही लालों की करनी से।                  प्रियदर्शन कुमार