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हे ईश्वर !

हे ईश्वर (30/05/2018) ================= हे इश्वर ! तुमने कैसा जहां बनाया था यह कैसा बन गया है आदमी, आदमी से जलता है इसने पशुता को भी पीछे छोड़ दिया है इनके आंखों में प्यार की बजाय खून दिखाई देता है हर तरफ मार-काट दंग-फंसाद का बोलवाला हो गया है मानव के अंदर दानवता का प्रवेश हो गया है मानव समष्टि को छोड़ व्यष्टि को अपना लिया है घृणा-द्वेष-ईर्ष्या करना इनके जीवन का हिस्सा बन गया है चारोँ ओर नफ़रत-ही-नफ़रत फैला है कहीं जाति के नामपर तो कहीं धर्म के नामपर ऐसा लगता है जैसे अधर्म का राज हो गया हो धर्म को किसी ने कैद कर लिया हो।

फिर एक नई सुबह

काव्य संख्या-177 08/05/2018 ---------------------- एक नई सुबह ---------------------- एक नई सुबह / एक नयी उमंग नये उम्मीदों के संग / बढ़ चले हैं हम / बिना अंजाम की परवाह किए / हर दिन एक नई चुनौतियों के साथ / हर दिन एक नया सबक / एक जिद एक जुनून / एक नई ऊर्जा के साथ आँखों में एक नये सपने लिए / उसके पीछे भागते / उठते गिरते खुद को सम्भालते / थकते रूकते / और फिर आगे बढ़ चलते / दुनिया की रेलमपेल में / अपनी जगह तलाशने / रोज निकल पड़ते हैं / हां साहब / ये जिंदगी है / ये कभी ठहरती नहीं / इसकी गति बहुत तीव्र है / इसी के साथ चलने की कोशिश / मंजिल तक पहुँचने की कोशिश / लगा हूँ मैं / लगा है सारा जहां / ठहरना मौत है / गति ही जीवन है / हां एक नई सुबह / एक नयी उमंग नये उम्मीदों के संग।                          प्रियदर्शन कुमार