हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने

काव्य संख्या-231
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हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने
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तुमसे दो पल की खुशी क्या मांग ली हमने, 
चंद वोटों की खातिर हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने। एक उम्मीद दिखी थी तुम में, 
उन उम्मीदों को अवसर में भुना लिया तुमने। 
इतने नीचे गिर जाओगे, 
कल्पना नहीं की थी तुमसे।  
सत्ता का आना जाना लगा रहेगा, 
पर देश बचाना जरूरी नहीं समझा तुमने। 
देश बनता है जनता से, 
पर जनता से हमदर्दी नहीं तुम्हें।
श्मशान में ऐसे लाश जल रही है,
मानो दीवाली मन रहा हो जैसे।
खुद का घर अंधेरे में डूबा हो,
दुनिया को दीपक दिखाने तुम निकले।
पल-पल सांसे छोड़ रहीं हैं जीवन को,
इसकी तनिक भी परवाह नहीं तुम्हें।
तन-मन-धन बाहुबल से लगे रहे तुम,
सत्ता को हथियाने में।
दुनिया लड़ती रही महामारी को हराने में,
उनमें एक तुम भी थे,
जो लाउ-लश्कर के साथ लगे थे,
एक नारी को हराने में।
अरे जनता ही न रही तो,
राज करोगे तुम किसपे।
बेशर्मी की तब और हद हो गई,
जन का जन की मदद करने पर,
एफआईआर कर दिया तुमने।
एक के बाद एक फरमान जारी किए तुमने,
ताकि जनता आवाज न उठाए।
ये कैसा फरमान है तुम्हारा,
मारो भी, और रोने भी न दो।
तुमसे दो पल की खुशी क्या मांग ली हमने, 
चंद वोटों की खातिर हमसे हमारी जिंदगी छीन ली तुमने।
                                                  "प्रियदर्शन कुमार"

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