हां साहब ! ये जिंदगी

काव्य संख्या-183
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हां साहब ! ये जिंदगी है
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हां साहब !
ये जिंदगी है
मिलना-बिछड़ना
टूटना-बिखरना
बिखरे हुए को समेटना
फिर आगे बढ़ चलना
ये जीवन की रीत है
ये सब इनके पड़ाव हैं।
हां साहब !
ये जिंदगी है
ये स्थिर नहीं है
ये तो गतिशील है
ये अपने-आपको दोहराता है
जो इसे समझ गया
वह खुश है
जो नहीं समझ पाया
वह टूटकर बिखर गया।
हां साहब !
ये जिंदगी है
इसे समझना आसान नहीं है
एक के साथ दूसरे
दूसरे के साथ तीसरे
इस तरह से आपस में गुथे रहते हैं
कि इन गुत्थियों सुलझाने में ही
सारी जिंदगी निकल जाती है
जो इनकी माया समझते हैं
वो इन पचड़ों में नहीं पड़ते
वे जीवन को सहज भाव से जीते हैं
हां साहब !
ये जिंदगी है।
ये हँसाती भी है
ये रुलाती भी है
ये मिलाती भी है
ये दूर भी करती है
इसके अनेकों रूप हैं
हर रूप को पहचानना मुश्किल है
बेहतर है जो सामने है
उसे स्वीकार करना है
हां साहब !
ये जिंदगी है।
प्रियदर्शन कुमार http://www.youtube.com/channel/UCJK1PCPEpRkLKwkj6gUM9Bw

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