पत्थरों के सीने में भी दिल होते हैं।

काव्य संख्या-182
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पत्थरों के सीने में भी दिल होते हैं
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पत्थरों के सीने में भी दिल होते हैं
उसके दिल भी धड़कते हैं
महसूस करके तो कोई देखे
तबियत से तो जाकर कोई उनसे पुछे
स्नेह भरी नजरों से
कोई उसके अंदर झांक कर तो देखें
कि वह कितना दर्द दबा रखा है
अपनी पीड़ा को बयां करने में
वह खुद को असमर्थ पाता है
मौन हो सबकुछ सहता है
किसी से कुछ नहीं कहता है
कहे भी तो किससे
कौन सुनता है उसकी व्यथा को
एक ही स्थान पर
हमेशा पड़ा रहता है
ठोकरें खाते रहता है
अपने भाग्य को कोसता है
उसे भी तलाश है ऐसे की
जो उनका हमसाया बनके आए
उनका हमदर्द बनकर
उनके जख्मों पर मरहम लगाए
लहरों के थपेड़ों से चोट खा-खाकर
उसने जीना छोड़ दिया है
उसे ही अपनी नियति मान लिया है
सूख गये हैं उनके आँसू
दिल को पत्थर उन्होंने बना लिया है
पत्थरों के सीने में भी दिल होते हैं
तबियत से तो जाकर कोई उनसे पुछे।
                             प्रियदर्शन कुमार

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