गाँधी ! क्या तुम्हें उपहार दूं

काव्य संख्या - 217
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गाँधी ! क्या तुम्हें उपहार दूं
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बापू !
तू बता, तुम्हारे जन्म-दिन पर
मैं तुम्हें क्या उपहार दूं?
घृणा दूं
मॉब लिंचिंग दूं
या फिर भ्रष्टाचारी-शोषणकारी समाज दूं
बापू !
तू बता, तुम्हारे जन्म-दिन पर
मैं तुम्हें क्या उपहार दूं?
कैसे पूरा करूं
मैं तुम्हारे राम-राज्य का सपना
जबकि न मूल्य बचे न आदर्श बचे
न बच पाई नैतिकता
सबके सब धरे रह गए
किताबी पन्नों तक
पर गयीं हैं उन पर धूल परतें
अब उसे कौन हटाएं
बापू !
तू बता, तुम्हारे जन्म-दिन पर
मैं तुम्हें क्या उपहार दूं?
जिस आजादी के लिए
तूने यातनाएं सही, कुर्बानी दी
आज वह एक-एक कर छिन गया
व्यक्ति विशेष देश का पर्याय बन गया
व्यक्ति विरोध देश विरोध की श्रेणी में आ गया
देश की सत्ता कुछ लोगों तक सिमट कर रह गयी
ऐसे में,
बापू !
तू बता, तुम्हारे जन्म-दिन पर
मैं तुम्हें क्या उपहार दूं?
हर तरफ भगवा छाया है
राम नाम का बोल वाला है
सड़क हो या फिर हो संसद
हर तरफ हिन्दुत्व का जयकारा है
विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका का गठजोड़ है
सारा का सारा विपक्ष मौन है
ऐसे में
बापू !
तू बता, तुम्हारे जन्म-दिन पर
मैं तुम्हें क्या उपहार दूं?
मैं शर्मिंदा हूँ
कुछ नहीं है मुझे तुम्हें देने को
हाथ खाली हैं मेरे
आँखों में अश्रु हैं मेरे
लो, अश्रु ही
मैं तुम्हें अर्पित करता हूँ।
         प्रियदर्शन कुमार

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