चाह विश्वगुरु बनने की

काव्य संख्या-228
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चाह विश्वगुरु बनने की
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चाहत विश्वगुरु बनने की,
दिमाग नहीं एक पैसे की।

बेवकूफों का जमावड़ा है,
बिना सोचे काम करता है।

अंजाम की परवाह नहीं उन्हें,
खामियाजा देश भुगतता है।

अब वो भी आंखें दिखाने लगे,
जो कभी हमें अपना मानते थे।

एक-एक कर छूटते चले जा रहे हैं,
हमारे संबंध उनसे टूटते जा रहें हैं।

अब भी समय है खुद में परिवर्तन लाओ,
अपनों को अपने साथ लाने का काम करो।

न तुम्हें अपने पड़ोसियों से बनती है,
न देश की अपनी जनता से बनती है।

खुद पर इतना गुरुर करना भी ठीक नहीं,
क्योंकि तुम्हारी हैसियत इस लायक नहीं।

बराबरी का दर्जा दो अपने पड़ोसियों को,
डिक्टेरशिप छोड़ सबको साथ लेकर चलो।

तभी  बात दुनिया  सुनेगी  तुम्हारी,
सारी दुनिया इज्जत करेगी तुम्हारी।

                         प्रियदर्शन कुमार

टिप्पणियाँ

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