हे नारी !

काव्य संख्या-134
27/09/2017
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हे नारी! 
छोड़ तू अपना 
सहज सरल सौम्य रूप 
धारण कर तू रणचंडी का रूप 
व्यर्थ तू किसी को अपनी व्यथा सुनाती है 
व्यर्थ में तू अपना खून जलाती है 
रामायण में सीता के चरित्र पर भी अंगुली उठी थी 
रो-रो कर बुरा हाल था 
पर, एक ने भी नहीं सुनी उसकी पीड़ा 
उसे भी अपनी पवित्रता का सबूत 
अग्नि में प्रवेश कर देना पड़ा 
द्वापर में भी रुक्मिणी के एक पति थे कृष्ण 
लेकिन कृष्ण की पत्नी केवल एक रुक्मिणी नहीं थी 
समाज में कभी भी नहीं रहा है नारी का सम्मान 
हमेशा रही है नारी असमानता की शिकार, इसलिए 
हे नारी ! 
तू मत सुना किसी को अपनी करूण व्यथा 
अधिकार मांगने से नहीं मिलता इस जग में 
यहां अधिकार छीनना पड़ता है 
यहां कदम-कदम पर लड़नी पड़ती है लड़ाई 
इज्ज़त शोहरत और सम्मान के लिए, इसलिए 
हे नारी! 
तू अपनी आँखों में 
अश्कों की बजाय रक्त ला
शीतल ह्रदय में अग्नि की ज्वाला जला
कोई एक आँख दिखाए तू दोनों दिखा
तू मत बन बेबस और लाचार 
तू मत फैला दूसरों के आगे हाथ 
तू खुद को मतकर आत्मसमर्पण 
तू खुद का मत बन भोगया 
तू अपने स्वाभिमान की रक्षा खुद कर
अगर सम्मान से जीना चाहती है 
यह सब करना होगा, वरना
दीन हीन लाचार बेबस हमेशा से रही है 
और हमेशा बनी रहेंगी। 
       प्रियदर्शन कुमार

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