शिक्षा और समाज : वर्तमान संदर्भ

शिक्षा और समाज : वर्तमान संदर्भ
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     अक्सर कहा जाता है कि शिक्षा किसी भी समाज के उन्नति की नींव होती है। शिक्षा के द्वारा ही किसी भी समाज और देश को बुलंदियों पर पहुंचा जा सकता है। ऐसे में सहज ही यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि वह उन्नति या बुलंदी किस प्रकार की हो? क्या जिसमें बड़ी-बड़ी अटल्लिकाएं हो ? क्या वह मानव के भौतिक सुखों को पूरा करने वाले सारे साजों-सामान हो जिसके लिए उन्हें कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े? माफ कीजिएगा, अगर शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यह है, तो इसका मतलब है कि हम शिक्षा के मूल अर्थ को समझ नहीं पाएं हैं, जिसे समझने की जरूरत है। यही नासमझी हमारे समाज को पतनशीलता के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है।
              शिक्षा का मतलब होता है संस्कार। जब हम संस्कार की बात करते हैं तो इससे हमारा तात्पर्य है- मूल्य, नैतिकता, आचार-विचार, शिष्टाचार आदि से। जिससे हमारा अलगाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। हम विकास के उस रास्ते पर चल पड़े हैं जहां पहुंच कर हमारी संवेदनाएं मृतप्राय हो जाती हैं। हमारी सोच 'हम' से सिमट कर 'मैं' पर आकर रूक जाती हैं। हम भूल चुके होते हैं अपने रिश्ते-नाते, परिवार-समाज। अगर हमारा संबंध किसी के साथ जुड़ा भी है, तो उसके मूल में है हमारी 'जरूरतें' जो हमें कुछ पल, कुछ दिन, कुछ महीनों या फिर कुछ सालों के लिए एक-दूसरे के साथ जोड़े रखती है। जैसे ही ज़रूरतें पूरी हुई उसी दिन से अलगाव की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। हम अक्सर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की बात करते हैं, लेकिन पूरी धरा तो दूर की बात है हम अपने परिवार और समाज के साथ भी जुड़ नहीं पाते हैं।
            अब प्रश्न यह उठता है कि अगर वर्तमान की शिक्षा व्यवस्था समाज में अलगाव को जन्म दे रही है तो इसकेे लिए जिम्मेदार कौन है- परिवार या समाज या फिर हमारी शिक्षा नीति ? तो निश्चित तौर पर, इसके लिए सभी ज़िम्मेदार हैं। टूटता हुआ परिवार जिसके कारण बच्चे को बुजुर्गों का सानिध्य नहीं प्राप्त हो पाना, माता-पिता के पास समय का अभाव जिसके कारण बच्चों को समय नहीं दे पाना, माता-पिता द्वारा बच्चों पर अपनी इच्छाओं को थोप देना बजाय यह सोचने या समझने की कि उनके बच्चे क्या चाहते है, उनकी इच्छा क्या है और वह उन बातों को समझने के लिए मानसिक रूप से तैयार है अथवा नहीं ? आदि चीज़ों का अभाव बच्चों के सर्वांगीण विकास में अवरोध उत्पन्न करता है और बच्चा परिवार तथा समाज से कटता चला जाता है। उसके अंदर अकेलेपन का अहसास घर कर जाता है। इसके अलावे, राज्यों का निरंतर सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप वैयक्तिक स्वतंत्रता और अधिकार के नाम पर, जिसने सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने का काम किया। अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात,  हमारी घिसी-पिटी शिक्षा प्रणाली जो कि बच्चों को मशीन में तब्दील कर दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चों को उत्पादक मान लिया है। जबकि हम सभी जानते हैं कि मनुष्य साध्य है उसका साधन के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह वस्तु नहीं है। अतः आज जरूरत इस बात की है कि शिक्षा प्रणाली में सर्वप्रमुख रूप से सुधार किए जाए ।
        शिक्षा प्रणाली में सुधार की बात करते हैं तो इससे हमारा तात्पर्य है कि वह शिक्षा जो व्यक्ति और परिवार को तथा व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करे। वह शिक्षा जो समाज में मानव मूल्यों की स्थापना कर सके। इसके लिए जरूरी है कि‌ प्राथमिक शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक सभी कक्षाओं में नैतिक शिक्षा के रूप में एक नया पाठ्यक्रम जोड़े जाएं। नैतिक शिक्षा देने हेतु प्रत्येक विद्यालय में शिक्षकों की नियुक्ति किए जाएं। प्रतिदिन विद्यालय में नैतिक शिक्षा पर अतिरिक्त कक्षाएं चलाई जाएं। शिक्षा उद्देश्य मूलक हो जो कि आज की आवश्यकताओं को पूरी करने वाले हों। आज़ हमारे समाज और देश को इसकी बहुत ज़रूरत है क्योंकि हम निरंतर पतनशीलता की ओर बढ़ रहे हैं, हमारा नैतिक पतन हो रहा है।
             ध्यातव्य है कि शिक्षा को समाज के साथ जोड़ा जाए। एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण करने के लिए उत्तम शिक्षा पर बल दिए जाने की जरूरत है जो कि बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक है और इसकी जिम्मेदारी हम सभी पर है तथा हम सभी को इस दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है ।
         

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