दंगा

काव्य संख्या-224
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दंगा
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साम्प्रदायिकता की आग में
ख़त्म हो गये सब रिश्ते नाते
उन बस्तियों को जला दिया उन्होंने,
जिनमें वर्षों से साथ रह रहे थे हम सारे,
थी मुस्कान उनके होंठों पर,
पता नहीं नज़र लग गई किसकी उनको
नफ़रत में जी रहे हैं वो
आंखों में लहू आ गये हैं उनके
हर तरफ़ मातम है
हर आंखों में आंसू हैं
बस्तियों में पसरा सन्नाटा है
हाथों की मेहंदी भी नहीं उतरी थी
शौहर के उठ गये जनाजे
मां खाने पर इंतजार कर रही थी बेटे की
बेटा नहीं, पर लाश पहुंच गई उसकी
कितनों के सर से उठ गया साया
अनाथ हो गए हैं बच्चे सारे
कभी ईद-दिवाली मनाते थे साथ मिलकर
आज़ हो गये हैं ख़ून के प्यासे
भाईचारे के रिश्तों में
ज़हर घोल दिए राजनेताओं ने
सत्ता में आने की खातिर
बांट दिया लोगों को लोगों में
लाल कर दिया धरती सीना
भाई को भाई से लड़ाने में
अच्छा था, गुलाम देश था
क्या मिली आजादी से हमें
व्यर्थ के ख़ून बहाएं महापुरुषों ने
देश को आजाद कराने में
तोड़ दिया उनके सपनों को
लहूलुहान किया भारत को
वर्षों लग गये बस्तियां बसाने में
पर, देर न लगी उसे मिटाने में
घर बार छोड़ भटक रहे हैं
एक आश्रय की खातिर
अब अपने ही देश में
बन गये हैं हम सरणार्थी।
         प्रियदर्शन कुमार

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