बहू

माँ लगाती झाडू-पोछा
बहुएं बैठती हैं सेज पर
कितना विहंगम दृश्य लगता है
कोई जाकर पुछे उन बेशर्मों से
लज्जा क्या नहीं आती है उन्हें
खुद को पढ़ी-लिखी की दावा करते
गौरव से हमेशा चूर रहते
खुद को ऊँचे खानदान का कहते
संस्कार-उंसकार की बातें करते
माँ को गाली-गलौज करते
खुद उनके टुकड़ों पर पलते
उन्हें ही आँख दिखाने से नहीं चूकते हैं
माँ की बातें लगती है उन्हें जली-भुनी
उनके द्वारा अर्जित सम्पत्ति लगती है उन्हें अच्छी
माँ की सेवा करने से जी चुराते हैं वो
माँ के मरने के बाद सम्पत्ति के बँटवारे के लिए
माइके से पिता-भाई-सगे-संबंधियो को बुलाते हैं वो
सास-बहू के झगड़ों में पीसते रहते बेटे बेचारे
दो बात उधर से सुनते, दो बात इधर से सुनते
पेंडुलम की तरह दोनों के बीच डोलते रहते
आस-पड़ोस वाले टकटकी लगाएँ बैठे रहते
कहीं कुछ मसाला मिल जाए उन्हें
आगे क्या हुआ, कौन किसको क्या बोला
इसी ताक-झांक में हमेशा रहते
घर-घर की यही कहानी है
कितनी सच्ची कितनी झूठी
यह मेरी कहानी है
सब अपने-अपने घर में झांककर देखो
कहीं पर ज्यादा कहीं पर कम
पर यह सच्ची मेरी कहानी है
तुम्हें बुरा लगे या भला लगे
मैं तो अपनी बात कहूँगा
कहकर फिर चूप हो
मैं बैठ जाऊँगा।
प्रियदर्शन कुमार

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