किसान

काव्य संख्या-207
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किसान
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मैं किसान हूँ
मेरा काम है खेती का
रहने के नाम पर
मेरे पास एक घर है
जो फूस का बना है
बरसात के दिनों में
टप-टप पानी टपकता है
गर्मी के मौसम में
सूर्य की किरणें झांकती हैं
एक टूटी हुई खाट
कुछ बर्तन
पहनने के नाम पर
फटा-चिथरा कपड़ा हैं
जो मेरे तन को ढकने में असमर्थ है
सर पर पगड़ी है
जो स्वाभिमान का प्रतीक है
एक लाठी है
जो सहारा देने का काम करता है
स्वप्न भी छोटे
आकांक्षाएं भी छोटी-सी
मेरा फसल अच्छा हो
अच्छी उपज हो
भरी दोपहरी हो
बरसात हो
या फिर हो शीतलहर
हर स्थिति में
मैं अनाज पैदा करता हूँ
ताकि पेट की आग को शांत कर सकूं
अपनी नहीं, दूसरों की
अपने लिए तो कुछ भी नहीं बचता
अपने लिए बचता है तो
केवल ऋणजाल
महाजनों का
कभी न चुकने वाला
मजदूरी कर पेट पालता हूँ
अपनी आयु से अधिक का दिखता हूँ
पैरों में छाले पड़े हैं
मैं समाज के हाथों का खिलौना हूँ
जिसके जज्बातों से सब खेलते हैं
लोकतंत्र के नाम पर
मुझे बस वोट देने का अधिकार है
ताकि लोकतांत्रिक देश में रहने का अहसास हो सके
सवाल पूछने का अधिकार नहीं है
सवाल पूछने पर गोलियां खाने को मिलती हैं
हां, चुनाव के दौरान कुछ भीख में मिल जाती है
जो दर्द पर मरहम लगाने का काम करता है
लेकिन कुछ दिनों के लिए
वह फिर से हरा हो जाता है
ऋणों के बोझ तले जन्म लेता हूँ
ऋणों के बोझ तले दब कर मर जाता हूँ
सदियों से चली आ रही
यहीं मेरी कहानी है
एक किसान की कहानी।
          प्रियदर्शन कुमार

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