सच में, वो आदमी नहीं वो है मौन प्रतिमा-सा

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सच में, वो आदमी नहीं
वो है मौन प्रतिमा-सा
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सच में, वो आदमी नहीं
वो है मौन प्रतिमा-सा
जिनकी आँखे तो खुली है
पर, देख पाने में असमर्थ है
जिनके पास कान तो है
पर, सुनने में असमर्थ है
जिनके पास मुख तो है
पर, बोलने में असमर्थ है
सच में, वो आदमी नहीं
वो है मौन प्रतिमा-सा।
जल रहा है हमारा देश
जाति-धर्म की आग में
उड़ाई जा रही हैं सरेआम
कानून की धज्जियां
फिर भी, वो मौन है
सच में, वो आदमी नहीं
वो है मौन प्रतिमा-सा।
वर्तमान में जीना छोड़
जा रहे हैं इंसान अतीत में
अपने अस्तित्व की खोज में
स्थापित करना चाहते हैं इंसान
एक बार फिर अपने वर्चस्व को
चुकाने को आतुर हैं इंसान
इसकी कोई भी कीमत
हो रहे हैं इंसान
एक-दूसरे के खून के प्यासे
शायद उन्हें खबर नहीं
सच में, वो आदमी नहीं
वो है मौन प्रतिमा-सा।
शायद उन्हें इस आग से
पहुंच रहा है
कोई राजनीतिक फायदे
शायद वो चाहते हैं
कि उलझे रहे लोग हमेशा
वर्चस्वता के उलझन में
कोई उनसे ये न पूछे
कि तुमने जनता के लिए
काम क्या किया है?
सच में, वो आदमी नहीं
वो है मौन प्रतिमा-सा।
बढ़ रही है समाज में
गरीबी-भूखमरी
बेगारी-बेरोजगारी
मजबूर हैं युवा
गलत रास्ते अपनाने को
जिसकी उन्हें खबर नहीं
सच में, वो आदमी नहीं
वो है मौन प्रतिमा-सा।
      प्रियदर्शन कुमार

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