टूटते सपने

इन नन्हीं-सी आँखों ने
बड़े-बड़े सपने पाले हैं
कुछ कर गुजरने की
इनमें चाहत के हिलोरें हैं
लेकिन हालात के आगे
ये बेबस नजर आते हैं
दिखाई पड़ते हैं इनके
टूटते हुए सपने
गरीबी की थपेड़ों से
चोट खा-खाकर
ये टूटते हुए दिखते हैं
भूख की तपिश में इनके
जल गए सपने सारे हैं
खेलने-कूदने की उम्र में
पेट भरने की सोचते हैं
जिस हाथ में कलम होने थे
कि खुद की इबारत लिखते ये
आज उस हाथ से ये कचरों में
फेंक दिए गए जूठन को खाते हैं
हमारे नीति-निर्माता
विकास का दंभ भरते हैं
यहां रोटी के दो टूकरे
खाने को बच्चे तरसते हैं
कितने संवेदनहीन हो गए लोग
कि 'स्व' के संकीर्ण दायरे में
सिमटे पड़े रहते हैं
कि बच्चों के भविष्य को
उजड़ते देखकर भी उनसे
अपनी आँखें फेर लेते हैं
कितने निर्लज्ज हैं कि लोग
खुद को मानव कहलाने पर
गर्व महसूस करते हैं।
      प्रियदर्शन कुमार

टिप्पणियाँ

हत्या कहूं या मृत्यु कहूं

हां साहब ! ये जिंदगी

ऐलै-ऐलै हो चुनाव क दिनमा

अलविदा 2019 !