मातृभूमि की वेदना

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सिसक रही है भारत माता,
अपने ही लालों की करनी से /
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई,
पालन-पोषण में,
कभी न की अंतर उसने /
आखिर क्या परवरिश में कमी रह गई,
कि खून के प्यासे हो गए एक-दूजे के /
भाई पर भाई टूट रहे हैं,
रिश्ते-नाते सारे टूट रहे हैं /
कभी मनाते थे साथ मिलकर,
होली-ईद-रमजान-दीवाली,
आज बन गये हैं हम अनजाने /
दो सौ बरस बंधी रही माँ,
गुलामी की जंजीरों से /
माँ को मुक्त कराने की खातिर,
हँसते-हँसते चढ़ गए थे शूली पर,
माँ के लाखों सपूत ने /
कैसा समय का कालचक्र है,
कि आज सतायी जा रही है माँ,
अपने ही लालों के हाथों से /
द्रवित हो रही है उसकी आत्मा,
ऐसे कुलंगारो से /
खून से रंगने चल पड़े हैं,
माँ के ममता की आंचल को /
सूख गया है आँखों पानी,
निर्लज्ज बन गए सारे कपूत।
           प्रियदर्शन कुमार

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