नदियों की मौन व्यथा

काव्य संख्या - 152
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नदियों की मौन व्यथा
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चलो आज सुनाता हूँ
नदियों की मौन व्यथा
कल-कल छल-छल
करती धाराओं से शायद
निकलती है करूण ध्वनि
शायद बयाँ करना चाहती
है अपनी पीड़ा को
समय नहीं किसी को
उसकी व्यथा सुनने की
शायद वह पूछना चाहती है
क्यों बांध दिया है मुझे जंजीरों से?
किस बात की सजा मिली मुझे?
क्यों बाधित की गयी
मेरी स्वतंत्रता को?
क्यों गंदला कर दिया है तूने
मेरे स्वच्छ औ' निर्मल जल को?
किसी भी सभ्यता की शुरुआत
मुझसे होती है औ' मुझपर खत्म
शायद तू भूल गया है
सिंधु घाटी सभ्यता को
हिमालय की गोद से निकलकर
चट्टानों से चोट खा-खाकर
सर्दी हो गर्मी हो हर मौसम में
मैं पहुँचती हूँ तुम्हारे तक
मैं तुम्हें जीवन देती हूँ
तृप्त करती हूँ तुम्हारी क्षुधा को
बदले मैं तुमसे नहीं कुछ मांगती
फिर भी तुम मुझे खून के आँसू रुलाते हो
फिर भी मेरे दिल से
तुम्हारे लिए बद्दुआ नहीं निकलती है
मैं अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करती
मैं तुम्हें पालती-पोषती हूँ
बच्चों का भी कुछ कर्तव्य है
तुम भी करो अपने कर्तव्य का निर्वाह
तुम क्यों करते हो मेरे नाम पे राजनीति?
नदियों की करूण व्यथा सुनकर
आ गए मेरे आँखों में आँसू
हम मानव कितने संवेदनहीन हो गए हैं
जो मुझे जीवन देती है
मैं उसी की जीवन को
छीनने के लिए तत्पर हूँ
जिसके बिना जीवन की कल्पना
भी नहीं की जा सकती है
उसी को प्रदूषित करता हूँ
मां की आंचल हो गई है मैली
इसकी चिंता हममें से किसी को भी नहीं
नदियों को संसाधनों का नाम देकर
राजनेता चमकाते हैं अपनी राजनीति
रोज नई-नई योजनाएं बनती हैं
नदियों को स्वच्छ करने की
पैकेज की घोषणाएं की जाती हैं
नदियों को स्वच्छ बनाने की
कसमें खाईं जाती हैं
स्वच्छता के नामपर
खत्म हो जाते हैं पैकेज
मैली की मैली ही रह
जाती है मां की आंचल
हम सब  की भी जिम्मेदारी है
इन्हें स्वच्छ और निर्मल रखने की।
                     प्रियदर्शन कुमार

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