साहित्य की सार्थकता : वर्तमान संदर्भ

साहित्य की सार्थकता : वर्तमान संदर्भ
प्रियदर्शन कुमार
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जब हम साहित्य की सार्थकता की बात करते हैं तो इससे हमारा आशय यह है कि एक साहित्यकार अपने साहित्यिक उत्तरदायित्व को निबाह पाने में कहाँ तक सफल रहा है?क्या उनके द्वारा रचित रचनाएँ साहित्य को सार्थकता प्रदान करता है? साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है तो क्या इस साहित्य रुपी दर्पण पर धूल की परत चढ़ गयी है जिसे समाज में विद्यमान कुरीतियाँ नजर नहीं आती हैं? क्या साहित्य माशूका के जुल्फों के साए तक सिमट कर रह गया है? क्या साहित्य की सोद्देश्यता यहीं तक सीमित है या फिर और कुछ भी?
        मुझे लगता है कि आजकल साहित्य का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। साहित्य लव-सेक्स-धोखा, हाफ गर्ल-फ्रेंड, फूल बॉय-फ्रेंड या फूल बॉय-फ्रेंड तक सिमट गया है या सिमटता जा रहा है। साहित्यकार शायद यह भूल गए हैं कि एक साहित्यकार का काम है समाज के आगे-आगे चलना व उसे रास्ता दिखाना न कि समाज के पीछे-पीछे चलना। साहित्यकार शायद समाज को क्या चाहिए और समाज की क्या जरूरत है, के बीच अंतर करना भूल गए हैं।शायद यही कारण है कि प्रेमी-प्रेमिकाओं को ध्यान में रखकर साहित्य की रचनाएँ अधिक की जा रही है। साहित्य धीरे-धीरे मनोरंजन की वस्तु बनती जा रही है। शायद साहित्यकार का साहित्य की रचना का एकमात्र मूल ध्येय धन उपार्जन रह गया है। कारण कि सामाजिक विमर्श पर आधारित रचनाओं का दायरा सिमटता जा रहा है। यहीं कारण है कि साहित्य की सार्थकता को लेकर प्रश्न उठ रहे हैं।
      आज जिसप्रकार साहित्यकार साहित्य की सामाजिक सोद्देश्यता से दूर हटता दिखाई पड़ रहा है वह खतरनाक है, वर्तमान की पीढ़ियों के लिए भी और आनेवाली पीढ़ियों के लिए भी। हमें समझना होगा कि साहित्य केवल मनोरंजन वस्तु की नहीं है और न ही साहित्यकार का काम केवल महफिल सजाना है। साहित्य का संबंध सामाजिक सरोकार से भी जुड़ा है।आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी जब हमारा देश और हमारा समाज प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजर रहा हो, जब हर जगह धर्म की राजनीति हो रही हो, लोगों का धर्म पूछकर उसकी हत्या कर दी जाती हो, किसान आत्महत्या करने को विवश हो, हर जगह बेगारी एवं बेरोजगारी पसरा हो, जब सत्ता घमंड में चूर हो, जनता द्वारा सत्ता के विरोध में आवाज़ उठाने पर उसकी हत्या कर दी जाती हों,जनता डर-डरकर जीने को मजबूर हों, जब सरेआम बच्चियों के साथ छेड़खानी की जाती हो और उसका बलात्कार किया जाता हो, समाज में धर्म के नाम पर वैमनस्यता फैलाई जा रही हो, लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये हों, जनता द्वारा रोटी-कपड़ा-मकान- स्वास्थ्य तथा शिक्षा की मांग किए जाने पर सरकार द्वारा उसे धर्म का झुनझुना हाथ थमा दिया जाता हो, समाज में हर जगह असहिष्णुता का माहौल हो, सत्ता अंधी, गूंगी और बहरी गई हो, तथा राजनीति-अपराध-पूंजीपति का गठजोड़ हो, तो साहित्यकार पर दायित्व और भी बढ़ जाता है।ऐसी स्थिति में साहित्यकार का धर्म बनता है कि वह नेतृत्व करने के लिए आगे आएं और जनता की आवाज़ बने तथा लोगों के अंदर सोई हुई चेतना को फिर से जगाने का काम करें। बिगड़ते हुए प्रतिकूल माहौल को फिर से अनुकूल बनाए। वह समाज का मार्गदर्शन करें।साहित्य ही है जो समाज में परिवर्तन ला सकता है। इतिहास गवाह है जब-जब समाज पर संकट आया है, तो साहित्य ही उस समाज को संकट से उबारने के लिए आगे आया। साहित्य ही समाज को दीपक की तरह रास्ता दिखाया है। अगर साहित्य और साहित्यकार अपनी भूमिका से विमुख हो जाएँगे तथा सत्ता के साथ गठजोड़ कर लेंगे, तो समाज छिन्न-भिन्न होकर रह जाएगा। साहित्य अपनी सार्थकता को खो देगा।
      अंत में, मैं यह भी कहना चाहूंगा कि साहित्यकार को दरबारी बनने से बचना चाहिए। चंद पुरस्कार और सरकारी सहायता प्राप्त करने हेतु सत्ता के चौखटे पर मत्था टेकने से परहेज करना चाहिए। समाज के विद्रूप यथार्थ से जनता को साक्षात्कार करवाएं। उनकी आवाज़ बने बजाय की दरबारी बनने के। साहित्य को शहरों की चकाचौंध दुनिया से बाहर निकालकर गरीबों-मजलूमों की स्थिति को विमर्श का विषय बनाएं। आदिवासियों के अधिकारों, उसके समाज और उसकी संस्कृति की रक्षा के लिए आगे आएं, उनके लिए लड़े तथा उनके अंदर की चेतना को जगाएं। एक साहित्यकार और उसके साहित्य की सार्थकता इसी में निहित है।

टिप्पणियाँ

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