खंडहर, जो कभी घर था

उन खंडहरों को देखो,
जिसे कभी घर कहा जाता था,
जिसमें कभी बच्चों की किलकारियाँ गूँजती थी,
हँसी-ठहाके की आवाज़े आती थीं,
चहल-पहल था,
बुजुर्गों का साया था,
भरा-पूरा परिवार था,
खुशनुमा माहौल था,
स्वार्थपरता का अभाव था,
लेकिन समय बदला,
दिन गुजरे,
घर खंडहरों में तब्दील हुआ,
दीवारों पर लटकी उन तस्वीरों को देखो,
उनपर पड़े धूल की परतों को देखो,
मकड़ी के जालों को देखो,
वास्तव में यह परत, धूल की नहीं,
दफ्न होतीं रिश्तों को बयां करती कहानी है,
उन खंडहरों को देखो,
उनमें पसरे सन्नाटे को महसूस करो,
दीवारों पर पड़े दरारें देखो,
मानो रिश्ते पर पड़ीं दरारें हों,
दरवाजे-खिड़कियां-मेज-कुर्सियाँ,
सुने पड़े उन झूले को देखो,
मानो सबने जीना छोड़ दिया हो,
सबके-सब मौन हैं,
लेकिन, मौन होकर भी,
बहुत कुछ बयां करती हैं,
अपनी दास्तान कहती हैं,
ये खंडहर, खंडहर नहीं है,
ये आज का यथार्थ है,
ये टूटती हुई परंपरा है,
ये अलगाव है,
स्वयं का स्वयं से,
स्वयं का अपनों से,
ये लोगों के अंदर की मरती संवेदना है,
ये बदलते हुए परिवार और समाज का सच है,
ये गवाह है,
हम कहां थे और अब कहां हैं,
हां, उन खंडहरों को देखो,
जिसे कभी घर कहा जाता था।
                   प्रियदर्शन कुमार

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