कोशिशें

सागर तट पर खड़ा हो
देख रहा मैं आती-जाती लहरों को
बार-बार चट्टानों से टकराती लहरों को
लहरों की जीवटता और जिजीविषा को
उसके इस समर्पण को
शायद वह मुझसे कुछ कहना चाहती है
कहकर फिर चली जाती है
शायद वह मुझे जीवन का उद्देश्य
समझाना चाहती है
मेरे गिरते मनोबल में
फिर से उर्जा भरना चाहती है
जय-पराजय से बाहर निकालकर
कर्म करने की सलाह देती है
मेरे जीवन को अर्थ देना चाहती है
शायद इसलिए वह बार-बार आती है
बार-बार समझाने की कोशिश करती है
अपना उदाहरण मुझे देती है
शायद मेरी सोयी हुई चेतना को
जगाने की कोशिश करती है
और आकर फिर चली जाती है
पहर-कई-पहर तक
टकटकी लगाए उसे देखता रहा मैं
शायद उसकी भाषा को
समझ पाता मैं
शायद उससे जिंदगी को जीना
सीख पाता मैं।
प्रियदर्शन कुमार

टिप्पणियाँ

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