विकास की आंधी

विकास की आंधी (18/03/2017)
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यह विकास की कैसी आंधी आयी रे
जिसने निर्धन के आंखों में आंसू लायी रे

जहां अन्नदाता अन्न के बिना
भूखे पेट सोने को विवश हो जाते हैं
वहीं पैसे वाले उसी अन्न से खलते हैं।

लोकतंत्र की बातें करतें हैं, लेकिन
लोक को ही लूटने में तंत्र लग जाते हैं।

यह 'सबका विकास' का कैसा नारा
जहां आम लोग छूट जाते हैं और
खास लोगों के विकास हो जाते हैं।

अमीर,और अमीर हो जाते हैं
गरीब,और गरीब हो जाते हैं

मजदूर जी-जान लगाकर मेहनत करते हैं
फिर भी उनके बच्चे भरपेट भोजन को तरसते हैं।

नेता चुनाव में बड़ी-बडी बातें करतें हैं
सत्ता में आते-ही सब भूल जाते हैं।

कहां गया स्वास्थ्य कहां गयी शिक्षा
कहां गया गरीबी उन्मूलन
कहां गया रोजगार देने के वादे
सत्ता आते ही ये सबकुछ भूल जाते हैं।

मोटे-मोटे तनख्वाह उठाते हैं
फिर भी पेट नहीं भरता तो
घोटाला करने में लग जाते हैं।
                 प्रियदर्शन कुमार

टिप्पणियाँ

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