डोमिनोज़

डोमिनोज़ (26/03/2017)
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कल मैं डोमिनोज में गया
हलांकि मैं खुद नहीं गया
ले जाया गया,
अब तक सिर्फ डोमिनोज का नाम ही सुना था।
ऐसा लगा, जैसे मैं
भारत से इंडिया में पहुंच गया।
वहां की बिल्कुल अलग संस्कृति थी
एक चकाचौंध वाली दुनिया
एक अंजान-सा चेहरा लिए
मैं इधर-उधर देखता रहा
एक आजीब-सी कोलाहल थी
हलांकि सभ्य जन इसे 'इन्ज्वाय'
का नाम देते हैं।
मैं उस संस्कृति को देखकर
स्तब्ध रह गया।
बस, यहीं सोचने लगा कि
ये कैसा समाज है
ये कैसी दुनिया है
यहां के रहनेवाले लोग कैसे हैं
जहां एक तरफ गरीबों-मजलूमों का
जोंक की तरह खून चूसते हैं
और अपने घर भरते हैं
होटलों में अय्याशी करते हैं
वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो भूखे
पेट सोने को मजबूर हैं
फूट-पाथ पर सोते हैं
बच्चे सड़क के बगल में
होटलों द्वारा फेंक दिए गए
जूठन को खाने को मजबूर हैं
ये कैसी विषमता व्याप्त है।
              प्रियदर्शन कुमार

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