चेतना

चेतना (24/03/2017)
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हमारी प्रगतिशील चेतना
जिसमें प्रगति तो हुई
लेकिन चेतना शुष्क पड़ गई
हमारा समाज जो हमें कभी
अनुशासित करने का काम करता था
नैतिकता का पाठ पढ़ाता था
आज वह व्यक्ति-विशेष का
पिछलग्गू बनकर रह गया है।
हमारे अंदर न तो सुनने की क्षमता है और
न किसी की बात को सहन करने शक्ति।
घर के लोगों के साथ तो हम असहनशील हैं
लेकिन बाहर जाकर औरों को
सहनशीलता का पाठ पढ़ाते हैं
अपनी मां की इज्जत तो नहीं करते
लेकिन बाहर जाकर हम
मां अम्मा आंटी कहकर
दूसरे को संबोधित करते हैं
भाई-भाई में तो नहीं बनता
लेकिन बाहर जाकर हम
भाईचारे की बात करते हैं
घर के भगवान्(मां-बाप) का तो अनादर करते हैं
लेकिन मंदिरों में पत्थरों की पूजा करते हैं।
फूट-पाथ पर लोग भूखा सोते हैं
लेकिन मंदिरों में ५६ भोग पत्थरों पर चढ़ाते हैं
हाय रे दुनिया तेरी गजब कहानी है
हमारे घर के चुल्हे-चौके तो बंद हैं
लेकिन होटल-रेस्टोरेंट में जाकर
पिज़्ज़ा-बर्गर का अॉडर देते हैं
इस प्रकार हम खुद को आधुनिक
कहलाने की कोशिश करते हैं
और हम खुद को प्रगतिशील मानव
चेतनता होने की बात करते हैं।
                   प्रियदर्शन कुमार

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