हां ! मैं दुख में ही स्थिर हो गया हूं

हां ! मैं ही दुख में जाकर स्थिर हो गया हूँ।
(02/07/2017)
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मैं अक्सर सोचता हूँ
व्यथित मन को शांत करने हेतु
कुछ ऐसी कविताएँ लिखूँ
जिससे मन में शांति हो
पता नहीं 
जीवटता-जिजीविषा-खुशी-उल्लास
जैसे शब्द मेरे शब्दकोश
से कहां चले गए
और बचे रह गए 
संत्रास-कुंठा-अजनबीयत-हताशा
जैसे शब्द।
जब भी कलम उठाता हूँ लिखने को
मेरे जेहन से ऐसे ही
शब्द निकलते हैं 
जो मेरे चित्त को 
शांत करने में असमर्थ हैं।
पता नहीं 
इसमें किसका दोष है
मेरा या फिर समय का
जिसके साथ चलने में
मैं असमर्थ हो गया हूँ
और स्थिर रह गया हूँ
अशांति के जाल में
हां ! मैं ही स्थिर हो गया हूँ
कालचक्र में सुख के बाद दुख
और दुख के बाद सुख आता है
जो निरंतर चलते रहता है
हां ! मैं ही दुख में जाकर स्थिर हो गया हूँ।

टिप्पणियाँ

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