मैं मानव हूं

मैं मानव हूं
(08/07/2018)
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काव्य संख्या-186
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मैं मानव हूँ 
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जब मैं कहता हूँ 
मैं मानव हूँ 
मुझे खुद पर हँसी आती है 
खुद को ठगा हुआ भी महसूस करता हूँ 
जबकि मेरे अंदर की मानवीयता
कबकि मर चुकी है 
मैं संवेदनहीन औ'
चेतना से शून्य कबका हो चुका हूँ 
न स्नेह है और न दूसरों के प्रति सम्मान का भाव 
न ममता है और न त्याग है 
दूसरों को रोते देखकर भी
अपनी निगाहें फेर लेता हूँ 
फिर भी कहता हूँ 
कि मैं मानव हूँ। 
आदमी और जानवर का 
फर्क मिट चुका है 
वो भी खुद के लिए जीता है 
और मैं भी खुद के लिए जीता हूँ 
या यूं कहें कि 
उससे भी नीचे गिर गया हूँ 
उनमें भी एकता है 
अपनी जातियों के प्रति 
समर्पण की भावना है 
सुख हो या दुख हो 
साथ-साथ रहते हैं 
न छल है न कपट है 
फिर भी गर्व से कहता हूँ 
कि मैं मानव हूँ। 
प्रियदर्शन कुमार

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