आह ! दफ्न होते मेरे स्वप्न

आह ! दफ्न होेते मेरे स्वप्न।
(17/07/2017)
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मैं श्मशान में बैठा,
आते-जाते लोगों को देख रहा था
उनकी बातों को सुन रहा था
उनकी बातों को सुनकर ऐसा लगा,
जैसे मानो मैं अपनी उस कल्पना
के समाज में जी रहा हूँ
जिसकी कामना मैं करता था
जिसके लिए मैं निराशा में डूबा हुआ था।
उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था 
जैसे उनके अंदर चेतना का प्रवेश हो गया हो
सिर्फ नैतिकता की बातें हो रही थी,
क्या लेकर आए हो क्या लेकर जाओगे,
आपस में क्या बैर रखना,
एक दिन हम सभी को भी इसी
जलते हुए लाश की तरह ही,
इसी मिट्टी में मिल जाना है,
हम क्यों और किसके लिए
अपने ईमान को बेचें,
आदि-आदि बातें लोग कर रहे थे।
लेकिन, जैसे ही संस्कार के बाद
नदी में स्नान कर निकलते है
मानो उनकी चेतना उनका विवेक
उनकी बुद्धि,
सारा कुछ उसी स्नान के साथ धूल गया हो
फिर, उसी दिन-दुनिया में लौट आते हैं
एक बार फिर, मेरे सपनोँ का समाज
स्वप्न में ही बना रह जाता है
हकीकत का रूप नहीं ले पाता।
इसप्रकार, टूटते हुए स्वप्न को देखकर
एक बार फिर, मैं निराशा में डूब गया
आह ! दफ्न होेते मेरे स्वप्न।
              प्रियदर्शन कुमार

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