टूटते रिश्ते
सम्पत्ति चाह में
छूट गए सब रिश्ते-नाते
नए संबंध बनते
पुराने छूटते चले गए
धन अर्जन की आपाधापी में
तोड़ दिए सारे
सामाजिक बंधन को
अब न कोई अपना रहा
और न कोई पराया
सारे रिश्ते-नाते
स्वार्थ के बंधन से
जुड़ हुए हैं
आँखों पानी सुख गया
लोग निर्लज्ज हो गए हैं
उसके पीछे भाग रहे हैं
सूर्य को संतरा समझ
न समझ बन
न वास्विकता से लेना-देना
न सोचने-समझने की क्षमता
रह गई बाक़ी
आँख पर काली पट्टी बांध
बस, भाग रहे हैं
खुद के स्टेटस के चक्कर में
मूल्य मर्यादा नैतिकता
सब, पीछे छोड़
लूट-खसोट में लग पड़े हैं।
प्रियदर्शन कुमार
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