स्त्री की पीड़ा
स्त्री की पीड़ा
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किसे सुनाऊँ मैं अपनी पीड़ा
जिससे भी कहती अपनी पीड़ा
वह और जख्म कुरेदता है मेरा
समझाने लगता है
वो मुझे नारी के गुण-धर्म
ये मत करो वो मत करो
तुम ऐसे कपड़े मत पहनो
तुम घर से इतने बजे के
बाद बाहर मत निकलो
नजरें झुकाकर चला करो
तुम्हें ये खाना है वो नहीं खाना है
तुम लड़की हो
तुम्हें यह शोभा नहीं देता
घर से बाहर तक
लगा देते हैं मुझपर पहरा
कदम-कदम पर नीचा
दिखाया जाता है हमें
जन्म से लेकर मृत्यु तक
हर जगह पहरा
बेटी-बहन-पत्नी-मां
हर जगह पुरूषों का नियंत्रण
थोप दिए जाते हैं
मुझपर सारे सामाजिक बंधन
कर दिया जाता है
मुझे दूसरों पर आश्रित
किया जाता है व्यवहार
मेरे साथ दासियों जैसा
किया जाता है
मेरे मान का मर्दन
ऐसा लगता है जैसे
मैं वस्तु बन गई हूँ
ऐसा लगता है जैसे
लड़की के रूप में जन्म लेना
कोई बहुत बड़ा गुनाह हो
जिस एवज में
इतनी बंदिशें लगाकर
मुझे सजाएँ दी जा रही हो
इससे बेहतर होता कि
मुझे गर्व में ही मार दिया जाता
नारकीय जीवन तो नहीं जीना पड़ता
स्त्री के रूप में जन्म लेना
मानो एक बड़ा अभिशाप हो।
प्रियदर्शन कुमार
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