ऐ शहर ! मैं लौट रहा हूं अपने गांव

काव्य संख्या-157
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ऐ शहर ! लौट रहा हूँ अपने गाँव
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ऐ शहर !
जी भर गया है मेरा तुमसे
अब दिल लगता नहीं मेरा यहां
अब नहीं रहना है मुझे तेरे शहर में
तुम्हारे शहर में खो-सी गयी है
कहीं पहचान मेरी
नाम की बजाय नम्बरों में
मैं बदल गई है पहचान मेरी
कब तुम्हारे भीड़ का हिस्सा
बन गया पता नहीं
कब मैं पुतला बन गया पता नहीं
कब स्वार्थी बन गया पता नहीं
कब मेरे अंदर से मूल्य मर्यादा
नैतिकता दया करूणा का भाव
निकल गया पता नहीं
तुम्हारे शहर की हवा बड़ी जहरीली है
जहरीले लोग वहां बसते हैं
वहां के लोगों में नफरत का जहर फैला है
अब लौट रहा हूँ मैं अपने गाँव
टूट-सा गया है मेरा रिश्ता
मुझे मेरे गाँव से
टूट-सा गया है मेरा रिश्ता
बचपन में बिताए गए
उन पलों से जिसे मैंने
बिताए थे मित्रों के साथ
टूट-सा गया है मेरा रिश्ता
उन दलानों घरों मुंडेरों से
उन गलियों मुहल्लों से
घूमा करता था
दूसरों के यहां घूम-घूम कर
खाया करता था
सबसे प्यार पाया करता था
टूट-सा गया है मेरा रिश्ता
अपने जड़ जंगल जमीन से
नदी तालाब और वहां की
शीतल पवन से
टूट-सा गया है मेरा रिश्ता
पशु पक्षी जुगनुओं से
टूट-सा गया है मेरा रिश्ता
वहां की खुशबूदार मिट्टी से
ऐ शहर !
मैं लौट रहा हूँ अपने गाँव।
             प्रियदर्शन कुमार

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