अंधेरा अच्छा लगता है मुझे

काव्य संख्या-159
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कभी-कभी अंधेरे में भी
रहना अच्छा लगता है मुझे
कभी-कभी कल्पना की दुनिया
में भी जीना अच्छा लगता है मुझे
अपेक्षाएं पूरी होती दिखती हैं मुझे
कल्पनाओं में मेरी
जब भी हकीकत से
सामना होता है मेरा
कांप जाते हैं रूह मेरे
चेहरे सूखने लगते हैं
खुशी अनजानी-सी
मालूम पड़ती है मुझे
बिन पानी की मछली
की तरह छटपटाता हूँ मैं
खुद की जिंदगी से घिन्न
आती है मुझे
जिसने जिंदगी दी मुझे
जिसने मेरे लिए अपनी
सारी को खुशियों को
न्योछावर कर दिया
उनके आँखों में आने वाली
आँसूओं को रोक पाने में
खुद को अक्षम पाता हूँ मैं।
             प्रियदर्शन कुमा

टिप्पणियाँ

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