चाहे ज़माना कुछ भी कर ले

काव्य संख्या-219
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चाहे ज़माना कुछ भी कर ले
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मैं जिंदा हूं जब तक
मैं बोलूंगा तब तक
चाहे ज़माना कुछ भी कर ले।

मैं यूं ही नहीं, बैठने वाला हूं
ज़माना तू सुन ले
तू मेरी बात पर
ध्यान दे या न दे
लेकिन तू इतना जान ले.....
मेरे मरने के बाद
याद आएंगी मेरी हर बात तुम्हें
ज़माना तू इतना सुन ले
मैं जिंदा हूं जब तक
मैं बोलूंगा तब तक
चाहे जमाना तू कुछ भी कर ले।

हम सभी इंसान हैं
एक ही ईश्वर के संतान हैं
सबके ख़ून एक हैं
फिर यह भेदभाव कैसा..…
क्यों न हम सब मिलकर
इसके खिलाफ आवाज़ उठाएं
क्यूं हम उनसे डरें
क्यूं हम उनके रहमो-करम पर जिएं
जिन्हें हमनें ही सिंहासन पर है बैठाया..…
मैं जिंदा हूं जब तक
मैं बोलूंगा तब तक
चाहे ज़माना कुछ भी कर ले।

जब हम सब एक हैं
हमारी ज़रूरतें एक हैं
हम क्युं न साथ मिलकर आगे बढ़ें..…
हम सब की साझी शहादत है
हम सब की साझी विरासत है
हम सब एक ही दिन आजाद हुए.....
फिर हम सब आपस में
क्यूं एक-दूसरे से उलझे
बांटने वाला हमें बांटेंगे ही
उन्हें जो है हमपे राज़ करना
मैं तो इनका ख़िलाफत करूंगा.....
मैं जिंदा हूं जब तक
मैं बोलूंगा तब तक
चाहे ज़माना कुछ भी कर ले।

चलो, आज़ हम सब
एक-दूसरे से वादें करें हम
हम न आपस में उलझेंगे....
हम न आपस में बंटेंगे
हम सब साथ मिलकर, आगे बढ़ेंगे
आतताइयों से हम लड़ेंगे..
चाहे मैं क्यों न
लड़ते-लड़ते मर जाऊं.….
मैं जिंदा हूं जब तक
मैं बोलूंगा तब तक
चाहे ज़माना कुछ भी कर ले।
                प्रियदर्शन कुमार

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